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आगम-साहित्य की रूप-रेखा ३१ हो । उसकी रचनाका काल विक्रमपूर्व तो अवश्य ही है। यह संभव है, कि उसमें परिवर्धन यत्र-तत्र हुआ हो।
आगमों के समय में यहाँ जो चर्चा की है, वह अन्तिम नहीं है । जब प्रत्येक आगम का अन्तर्बाह्य निरीक्षण करके इस चर्चा को परिपूर्ण किया जायगा, तब उनका समयनिर्णय ठीक हो सकेगा । यहाँ तो सामान्य निरूपण करने का प्रयत्न है। आगमों का विषय:
जैनागमों में से कुछ तो ऐसे हैं, जो जैन आचार से सम्बन्ध रखते हैं । जैसे-आचारांग, दशवकालिक आदि । कुछ उपदेशात्मक हैं । जैसेउत्तराध्ययन, प्रकीर्णक आदि । कुछ तत्कालीन भूगोल और खगोल आदि मान्यताओं का वर्णन करते हैं। जैसे-जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, सूर्य-प्रज्ञप्ति आदि । छेदसूत्रोंका प्रधान विषय जैनसाधुओंके आचार सम्बन्धी औत्सगिक और आपवादिक नियमोंका वर्णन तथा प्रायश्चित्तोंका विधान करना है। कुछ ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनमें जिनमार्गके अनुयायियोंका जीवन दिया गया है । जैसे—उपासकदशांग, अनुत्तरोपपातिक दशा आदि । कुछमें कल्पित कथाएँ देकर उपदेश दिया गया है। जैसे-ज्ञातृधर्म कथा आदि । विपाक में शुभ और अशुभ कर्मका विपाक कथाओं द्वारा बताया गया है । भगवती सूत्रमें भगवान् महावीरके साथ हुए संवादोंका संग्रह है। बौद्धसुत्तपिटक की तरह नाना विषय के प्रश्नोत्तर भगवती में संगृहीत हैं।
दर्शनके साथ सम्बन्ध रखने वाले आगम मुख्यरूपसे ये हैं-सूत्रकृत, प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय, भगवती, नंदी, स्थानांग, समवायांग और अनुयोग द्वार ।
सूत्रकृतमें तत्कालीन अन्य दार्शनिक विचारों का निराकरण करके स्वमतकी प्ररूपणा की गई है । भूतवादियोंका निराकरण करके आत्मा का पृथक् अस्तित्व बतलाया है । ब्रह्मवादके स्थानमें नानात्मवाद स्थिर किया है । जीव और शरीर को पृथक् बताया है । कर्म और उसके फलकी सत्ता
५२ देखो, प्रेमी अभिन्दन प्रन्य.
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