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आगम-युग का जेन-दर्शन
स्थान मिला है। महानिशीथ सूत्र जो उपलब्ध है, वह वही है, जिसे आचार्य हरिभद्र ने नष्ट होते बचाया। उसकी वर्तमान संकलना का श्रेय आचार्य हरिभद्र को है। अतएव उसका समय भी वही मानना चाहिए, जो हरिभद्र का है । किन्तु वस्तु तो वास्तव में पुरानी है ।
मूलसूत्रों में दशवकालिक सूत्र आचार्य शय्यम्भव की कृति है । उनको युग-प्रधान पद वीर नि० सं० ७५ में मिला, और वे उस पद पर मृत्यु तक वीर नि० ६८ तक बने रहे । दशवकालिक की रचना विक्रम पूर्व ३६५ और ३७२ के बीच हुई है । दशवकालिक सूत्र के विषय में हम इतना कह सकते हैं, कि तद्गत चूलिकाएँ, सम्भव हैं बाद में जोड़ी गई हों। इसके अलावा उसमें कोई परिवर्तन या परिवर्धन हुआ हो यह सम्भव नहीं । उत्तराध्ययन किसी एक आचार्य की कृति नहीं, और न वह एक काल की कृति है । फिर भी उसे विक्रम पूर्व दूसरी या तीसरी शताब्दी का मानने में किसी प्रकार की बाधा नहीं । आवश्यक सूत्र अंग बाह्य होने से गणधरकृत नहीं हो सकता, किन्तु वह समकालीन किसी स्थविर की रचना होनी चाहिए । साधुओं के आचार में नित्योपयोग में आनेवाला यह सूत्र है । अतएव इसकी रचना दशवैकालिक से भी पहले मानना चाहिए । अंगों में जहाँ पठन का जिक्र आता है, वहाँ सामाइयाइणि एकादसंगाणि'पढ़ने का जिक्र आता है। इससे प्रतीत होता है कि साधुओंको सर्व प्रथम आवश्यक सूत्र पढ़ाया जाता था। इससे भी यही मानना पड़ता है, कि इसकी रचना विक्रम पूर्व ४७० के पहले हो चुकी थी। पिण्ड नियुक्ति, यह दशवकालिक की नियुक्ति का अंश है। अतएव वह भद्रबाहु द्वितीय की रचना होने के कारण विक्रम पांचवीं छठी शताब्दी की कृति होनी चाहिए।
चूलिका सूत्रोंमें नन्दी सूत्रकी रचना तो देववाचक की है । अतः उसका समय विक्रमकी छठी शताब्दी से पूर्व होना चाहिए। अनुयोगद्वारसूत्रके कर्ता कौन थे यह कहना कठिन है । किन्तु वह आवश्यक सूत्रके बाद बना होगा, क्योंकि उसमें उसी सूत्रका अनुयोग किया गया है । बहुत कुछ संभव है, कि वह आर्य रक्षितके बाद बना हो, या उन्होंने बनाया
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