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________________ आगम-साहित्य को रूप-रेखा ११ नहीं मानी जा सकती, जिसका मूल उपर्युक्त उपदेश में . न हो या जो उससे विसंगत हो। जो यथार्थदर्शी नहीं हैं, किन्तु यथार्थ श्रोता (श्रुतकेवली-दशपूर्वी) हैं, उनकी भी वही बात प्रमाण मानी जाती है, जो उन्होंने यथार्थदर्शी से साक्षात् या परंपरा से सुनी है । अश्रुत कहने का भी अधिकार नहीं है । तात्पर्य इतना ही है कि कोई भी बात तभी प्रमाण मानी जाती है, जब उसका यथार्थ अनुभव एवं यथार्थ दर्शन किसी न किसी को हुआ हो । आगम वही प्रमाण है, जो प्रत्यक्षमूलक है । आगम-प्रामाण्य के इस सिद्धान्त के अनुसार पूर्वोक्त आदेश आगमान्तर्गत नहीं हो सकते। दिगम्बरों ने तो अमुक समय के बाद तीर्थंकरप्रणीत आगम का सर्वथा लोप ही मान लिया, इसलिए आदेशों को आगमान्तर्गत करने की उनको आवश्यकता ही नहीं हुई। किन्तु श्वेताम्बरों ने आगमों का संकलन करके यथाशक्ति सुरक्षित रखने का जब प्रयत्न किया, प्रतीत होता है, कि ऐसी बहुत-सी बातें उन्हें मालूम हुईं, जो पूर्वाचार्यों से श्रुतिपरंपरा से आई हुई तो थीं. किन्तु जिनका मूलाधार तीर्थंकरों के उपदेशों में नहीं था, ऐसी बातों को भी सुरक्षा की दृष्टि से आगम में स्थान दिया गया और उन्हें आदेश एवं मुक्तक कह कर के उनका अन्य प्रकार के आगम से पार्थक्य भी सूचित किया । आगमों के संरक्षण में बाधाएँ: ऋग्वेद आदि वेदों की सुरक्षा भारतीयों का अद्भुत कार्य है। आज भी भारतवर्ष में सैकड़ों वेदपाठी ब्राह्मण मिलेंगे, जो आदि से अन्त तक वेदों का शुद्ध उच्चारण कर सकते हैं । उनको वेद पुस्तक की आवश्यकता नहीं । वेद के अर्थ की परंपरा उनके पास नहीं, किन्तु वेदपाठ की परम्परा तो अवश्य ही है । जैनों ने भी अपने आगम ग्रंथों को सुरक्षित रखने का वैसा ही प्रबल प्रयत्न किया है, किन्तु जिस रूप में भगवान् के उपदेश को गणधरों ने ग्रथित किया था, वह रूप आज हमारे पास नहीं । उसकी भाषा में--वह प्राकृत होने के कारण-परिवर्तन होना स्वाभाविक ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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