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________________ आगम-युग का जैन दर्शन जैनों की मान्यता है कि चतुर्दशपूर्वधर और दशपूर्वधर वे ही साधक हो सकते हैं, जिनमें नियम से सम्यग्दर्शन होता है - ( बृहत् — १३२ ) । अतएव उनके ग्रन्थों में आगमविरोधी बातों की संभावना ही नहीं रहती । यही कारण है कि उनके ग्रंथ भी कालक्रम से आगमान्तर्गत कर लिए गए हैं । १० आगे चलकर इस प्रकार के अनेक आदेश, जिनका समर्थन किसी शास्त्र से नहीं होता है, किन्तु जो स्थविरों की अपनी प्रतिभा के बल से किसी के विषय में दी हुई संमति मात्र हैं- उनका समावेश भी अंगबाह्य आगम में कर लिया गया है । इतना ही नहीं, कुछ मुक्तकों को भी उसी में स्थान प्राप्त है । १३ आदेश और मुक्तक आगमान्तर्गत हैं या नहीं, इसके विषय में दिगम्बर परम्परा मौन है । किन्तु गणधर, प्रत्येक बुद्ध, चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी ग्रथित सभी शास्त्र आगमान्तर्गत हैं, इस विषय में दोनों का एक मत है । इस चर्चा से यह तो स्पष्ट ही है, कि पारमार्थिक दृष्टि से सत्य का आविर्भाव निर्जीव शब्द में नहीं, किन्तु सजीव आत्मा में ही होता है । अतएव किसी पुस्तक के पन्ने का महत्त्व तब तक है, जब तक वह आत्मोन्नति का साधन बन सके । इस दृष्टि से संसार का समस्त साहित्य जैनों को उपादेय हो सकता है, क्योंकि योग्य और विवेकी आत्मा के लिए अपने काम की चीज कहीं से भी खोज लेना सहज है । किन्तु अविवेकी और अयोग्य के लिए यही मार्ग खतरे से खाली नहीं है । इसी लिए जैन ऋषियों ने विश्व - साहित्य में से चुने हुए अंश को ही जैनों के लिए व्यवहार में उपादेय बताया है और उसी को जैनागम में स्थान दिया है । चुनाव का मूल सिद्धान्त यह है कि उसी विषय का उपदेश उपादेय हो सकता है, जिसे वक्ता ने यथार्थ रूप में देखा हो, इतना ही नहीं, किन्तु यथार्थ रूप में कहा भी हो। ऐसी कोई भी बात प्रमाण बृहत्० १४४ और उसकी पावटीप. विशेषा० गा० ५५०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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