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३१८ प्रांगम-युग का जैन-दर्शन किया गया और कर्म की स्थापना की गई ! यह कर्म ही भाव है, अन्य कुछ नहीं-यह अंतिम निष्कर्ष है।
(५) चौथे अर में विधिनियम भंग में कर्म अर्थात् भाव अर्थात् क्रिया को जब स्थापित किया तब प्रश्न होना स्वाभाविक है कि भवन या भाव किसका ? द्रव्यशून्य केवल भवन हो नहीं सकता। किसी द्रव्य का भवन या भाव होता है। अतएव द्रव्य और भाव इन दोनों को अर्थरूप स्वीकार करना आवश्यक है; अन्यथा 'द्रव्यं भवति' इस वाक्य में पुनरुक्ति दोष होगा। इस नय का तात्पर्य यह है कि द्रव्य और क्रिया का तादात्म्य है। क्रिया बिना द्रव्य नहीं और द्रव्य बिना क्रिया नहीं। इस मत को नैगमान्तर्गत किया गया है । नैगमनय द्रव्याथिक नय है।
(६) इस पर में द्रव्य और क्रिया के तादात्म्य का निरास वैशेषिक दृष्टि के आश्रय से करके द्रव्य और क्रिया के भेद को सिद्ध किया गया है । इतना ही नहीं किन्तु गुण, सत्तासामान्य, समवाय आदि वैशेषिक संमत पदार्थों का निरूपण भी भेद का प्राधान्य मान कर किया गया है। आचार्य ने इस दृष्टि को भी नैगमान्तर्गत करके द्रव्याथिक नय ही माना है।
प्रथम अर से लेकर इस छ8 अर तक द्रव्याथिक नयों की विचारणा है । अब आगे के नय पर्यायार्थिक दृष्टि से हैं ।
(७) वैशेषिक प्रक्रिया का खण्डन ऋजुसूत्र नय का आश्रय लेकर किया गया है । उसमें वैशेषिक संमत सत्तासंबंध और समवाय का विस्तार से निरसन है और अन्त में अपोहवाद की स्थापना है। यह अपोहवाद बौद्धों का है। .. (८) अपोहवाद में दोष दिखा कर वैयाकरण भर्तृहरि का शब्दाद्वैत स्थापित किया गया है । जैन परिभाषा के अनुसार यह चार निक्षेपों में नामनिक्षेप है । जिसके अनुसार वस्तु नाममय है, तदतिरिक्त उसका कुछ भी स्वरूप नहीं।
___ इस शब्दाद्वैत के विरुद्ध ज्ञान पक्ष को रखा है और कहा गया है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति ज्ञान के बिना संभव नहीं है। शब्द तो ज्ञान
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