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२६६ प्रागम-युग का जैन-दर्शन
मैंने प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ (१९४६) में अपने लेख में मल्लवादि नय चक्र का संक्षिप्त परिचय दिया ही है, किन्तु उस ग्रन्थ-रचना का वैलक्षण्य मेरे मन में तब से ही बसा हुआ है और अवसर की प्रतीक्षा में रहा कि उसके विषय में विशेष परिचय लिखू । दरमियान मुनि श्री जम्बूविजयजी ने श्री 'प्रात्मानंद प्रकाश' में नयचक्र के विषय में गूजराती में कई लेख लिखे और एक विशेषांक भी नयचक्र के विषय में निकाला है। यह सब और मेरी अपनी नोंधों के आधार पर यहाँ नयचक्र के विषय में कुछ विस्तार से लिखना है । मल्लवादी का समय : ____ आचार्य मल्लवादी के समय के बारे में एक गाथा के अलावा अन्य कोई सामग्री मिलती नहीं। किन्तु नयचक्र के अन्तर का अध्ययन उस सामग्री का काम दे सकता है। नय चक्र की उत्तरावधि तो निश्चित हो ही सकती है और पूर्वावधि भी । एक ओर दिग्नाग है जिनका उल्लेख नयचक्र में है और दूसरी ओर कुमारिल और धर्मकीर्ति के उल्लेखों का अभाव है जो नयचक्र मूल तो क्या, किन्तु उसकी सिंहगणिकृत वृत्ति से भी सिद्ध है । आचार्य समन्तभद्र का समय सुनिश्चित नहीं, अतएव उनके उल्लेखों का दोनों में अभाव यहाँ विशेष साधक नहीं । आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख दोनों में है। वह भी नयचक्र के समय-निर्धारण में उपयोगी
आचार्य दिग्नाग का समय विद्वानों ने ई० ३४५-४२५ के आसपास माना है । अर्थात् विक्रम सं० ४०२-४८२ है। आचार्य सिंहगणि जो नयचक्र के टीकाकार हैं अपोहवाद के समर्थक बौद्ध विद्वानों के लिए अद्यतन बौद्ध' विशेषण का प्रयोग करते हैं। उससे सूचित होता है कि दिग्नाग जैसे बौद्ध विद्वान् सिर्फ मल्लवादी के ही नहीं, किन्तु सिंहगणि के भी समकालीन हैं । यहाँ दिग्नागोत्तरकालीन बौद्ध विद्वान तो विवक्षित हो ही नहीं सकते, क्योंकि किसी दिग्नागोत्तरकालीन बौद्ध का मत मूल या टीका में नहीं है । अद्यतनबौद्ध के लिए सिंहगणि ने 'विद्वन्मन्य' ऐसा विशेषण भी दिया है। उससे यह सूचित भी होता है कि 'आजकल के
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