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________________ दार्शनिक साहित्य का विकास क्रम २६१ चर्चा की। इन दो महान् टीकाकारों के बाद बारहवीं शताब्दी में वादिदेव सूरि ने प्रमाण और नय की विस्तृत चर्चा करने वाला स्याद्वादरत्नाकर लिखा । यह ग्रन्थ प्रमाणनयतत्वालोक नामक सूत्रात्मक ग्रन्थ की स्वोपज्ञ विस्तृत टीका है । इसमें वादिदेव ने प्रभाचंद्र के ग्रन्थ में जिन अन्य दार्शनिकों के पूर्वपक्षों का संग्रह नहीं हुआ था. उनका भी संग्रह करके सभी का निरास करने का प्रयत्न किया है । वादिदेव के समकालीन प्राचार्य हेमचन्द्र ने मध्यम परिमाण प्रमाण-मीमांसा लिख कर एक प्रादर्श पाठ्य ग्रन्थ की क्षति की पूर्ति की है । इसी प्रकार आगे भी छोटी-मोटी दार्शनिक कृतियाँ लिखी गईं, किन्तु उनमें कोई नयी बात नहीं मिलती । पूर्वाचार्यो की कृतियों के अनुवाद रूप ही ये कृतियाँ बनी हैं। इनमें न्याय - दीपिका उल्लेख योग्य है । नव्यन्याय-युग : भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में नव्यन्याय के युग का प्रारंभ गंगेश से होता है । गंगेश का जन्म विक्रम १२५७ में हुआ । उन्होंने नवीन न्यायय - शैली का विकास किया। तभी से समस्त दार्शनिकों ने उसके प्रकाश में अपने-अपने दर्शन का परिष्कार किया । किन्तु जैन दार्शनिकों में से किसी का, जब तक यशो-विजय नहीं हुए, इस ओर ध्यान नहीं गया था । फल यह हुआ कि १३ वीं शताब्दी से १७ वीं शताब्दी के अंत तक भारतीय दर्शनों की विचार-धारा का जो नया विकास हुआ, उससे जैन दार्शनिक साहित्य वंचित ही रहा । १७ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में वाचक यशोविजय ने काशी की ओर प्रयाण किया श्रौर सर्वशास्त्र वैशारद्य प्राप्त कर उन्होंने जैन दर्शन में भी नवीन न्याय की शैली से अनेक ग्रन्थ लिखे और अनेकान्तवाद के ऊपर दिए गए प्राक्षेपों का समाधान करने का प्रयत्न किया । उन्होंने श्रनेकान्तव्यवस्था लिखकर अनेकान्तवाद की पुनः प्रतिष्ठा की । और प्रष्टसहस्त्री तथा शास्त्रवार्तासमुच्चय नामक प्राचीन ग्रन्थों के ऊपर नवीन शैली की टीका लिखकर उन दोनों ग्रन्थों को प्राधुनिक बनाकर उनका उद्धार किया । जैन-तर्कभाषा और ज्ञानबिन्दु लिखकर जैन प्रमाणशास्त्र को परिष्कृत किया । उन्होंने नयवाद के विषय में नयप्रदीप, नयरहस्य, नयोपदेश श्रादि श्रनेक ग्रन्थ लिखे हैं । वाचक यशोविजय ने ज्ञान-विज्ञान की प्रत्येक शाखा में कुछ न कुछ लिखकर जैन साहित्य भण्डार को समृद्ध किया है। इस नव्यन्याय युग की सप्तभंगीतरंगिणी भी उल्लेख योग्य है । ** For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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