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________________ २८६ श्रागम युग का जैन दर्शन विज्ञानवाद का समर्थन किया तथा बौद्ध-संमत सर्व वस्तुओं की क्षणिकता का सिद्धान्त स्थिर किया । ईसा की पाँचवीं शताब्दी तक संघर्ष का लाभ जैन दार्शनिकों ने अपने के उठाया । चलने वाले दार्शनिकों के इस अनेकान्तवाद की व्यवस्था कर भगवान महावीर के उपदेशों में नयवाद अर्थात् वस्तु की नाना दृष्टि-बिन्दुनों से विचारणा को स्थान था । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार अपेक्षाओं के आधार से किसी भी वस्तु का विधान या निषेध किया जाता है, यह भी भगवान की शिक्षा थी । तथा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों को लेकर किसी भी पदार्थ का विचार करना भी भगवान ने सिखाया था । इन भगवदुपदिष्ट तत्वों के प्रकाश में जब सिद्धसेन ने उपर्युक्त दार्शनिकों के वाद-विवादों को देखा, तब उन्होंने अनेकान्त व्यवस्था के लिए उपयुक्त अवसर समझ लिया और अपने सन्मतितर्क नामक ग्रंथ में तथा भगवान् की स्तुति प्रधान बत्तीसियों में अनेकान्तवाद का प्रबल समर्थन किया । यह कार्य उन्होंने विक्रम पाँचवीं शताब्दी में किया । सिद्धसेन की विशेषता यह है, कि उन्होंने तत्कालीन नानावादों को नयवादों में सन्निविष्ट कर दिया | अद्वैतवादियों की दृष्टि को उन्होंने जैन- सम्मत संग्रह नय कहा । क्षणिकवादी बौद्धों का समावेश ऋजुसूत्रनय में किया । सांख्य-दृष्टि का समावेश द्रव्यार्थिक नय में किया । कणाद के दर्शन का समावेश द्रव्याधिक और पर्यायार्थिक में कर दिया । उनका तो यह कहना है, कि संसार में जितने दर्शन-भेद हो सकते हैं, जितने भी वचन-भेद हो सकते हैं, उतने ही नयवाद हैं और उन सभी के समागम से ही अनेकान्तवाद फलित होता है । यह नयवाद, यह पर दर्शन, तभी तक मिथ्या हैं, जब तक वे एक दूसरे को मिथ्या सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं, एकदूसरे के दृष्टिबिन्दु को समझने का प्रयत्न नहीं करते । अतएव मिथ्याभिनिवेश के कारण दार्शनिकों को अपने पक्ष की क्षतियों का तथा दूसरों के पक्ष की खूबियों का पता नहीं लगता । एक तटस्थ व्यक्ति ही आपस में लड़ने वाले इन वादियों के गुण-दोषों को जान सकता है । यदि स्याद्वाद या अनेकान्तवाद का अवलम्बन लिया जाए, तो कहना होगा, कि अद्वैतवाद भी एक दृष्टि से ठीक ही है । जब मनुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only $ www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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