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________________ दार्शनिक साहित्य का विकास-क्रम २८५ . की सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक टीका श्लोकवार्तिक है, जिसके रचयिता विद्यानन्द हैं। आगमों की तथा तत्त्वार्थ की टीकाएँ यद्यपि आगम-युग की नहीं हैं, किन्तु उनका सीधा सम्बन्ध मूल के साथ होने से यहाँ उनका संक्षिप्त परिचय करा दिया है । अनेकान्त-व्यवस्था-युग: नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु और दिग्नाग ने भारतीय दार्शनिक परम्परा को एक नयी गति प्रदान की है । नागार्जुन ने तत्कालीन बौद्ध और बौद्धेतर सभी दार्शनिकों के सामने अपने शून्यवाद को उपस्थित करके वस्तु को सापेक्ष सिद्ध किया । उनका कहना थां, कि वस्तु न भाव-रूप है, न अभाव-रूप, न उभय-रूप और न अनुभय-रूप । वस्तु को किसी भी विशेषण देखकर उसका रूप बताया नहीं जा सकता, वस्तु अवाच्य है। यही नागार्जुन का मन्तव्य था । असङ्ग और वसुवन्धु इन दोनों भाइयों ने वस्तु मात्र को विज्ञानरूप सिद्ध किया और बाह्य जड़ पदार्थों का अपलाप किया । वसुबंधु के शिष्य दिग्नाग ने भी उनका समर्थन किया और समर्थन करने के लिए बौद्ध दृष्टि से नवीन प्रमाणशास्त्र की भी नींव रखी। इसी कारण से वह बौद्ध न्यायशास्त्र का पिता कहा जाता है। उसने युक्ति-पूर्वक सभी वस्तुओं की क्षणिकता वाले बौद्ध सिद्धान्त का भी समर्थन किया। बौद्ध विद्वानों के विरुद्ध में भारतीय सभी दार्शनिकों ने अपने अपने पक्ष की सिद्धि करने के लिए पूरा बल लगाया। नैयायिक वात्स्यायन ने नागार्जुन और अन्य बौद्ध दार्शनिकों का खण्डन करके आत्मा आदि प्रमेयों की भावरूपता और उन सभी का पार्थक्य सिद्ध किया । मीमांसक शबर ने विज्ञानवाद और शून्यवाद का निरास करके वेद की अपौरुषेयता स्थिर की। वात्स्यायन और शबर दोनों ने बौद्धों के 'सर्व क्षणिकम्' सिद्धान्त की आलोचना करके आत्मा आदि पदार्थों की नित्यता की रक्षा की। सांख्यों ने भी अपने पक्ष की रक्षा के लिए प्रयत्न किया। इन सभी को अकेले दिग्नाग ने उत्तर देकर के फ़िर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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