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भागम-युग का जैन-दर्शन
पिण्डनियुक्ति-ये चार मूलसूत्र हैं । निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुत स्कन्ध, पञ्चकल्प और महानिशीथ-ये छह छेद सूत्र हैं। चतु:शरण, आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, संस्तारक, तन्दुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, महाप्रत्याख्यान और वीरस्तव-ये दश प्रकीर्णक हैं ।
आगमों का अन्तिम संस्करण वीरनिर्वाण के ६८० वर्ष बाद (मतान्तर से ६६३ वर्ष के बाद) वलभी में देवधि के समय में हुआ। कालक्रम से आगमों में परिवर्धन हुआ है, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है, कि आगम सर्वांशतः देवधि की ही रचना है और उसका समय भी वही है, जो देवधि का है । आगमों में आचाराङ्ग और सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध अवश्य ही पाटलीपुत्र के संस्करण का फल है। भगवती के अनेक प्रश्नोत्तर और प्रसङ्गों की संकलना भी उसी संस्करण के अनुकूल हुई हो, तो कोई आश्चर्य नहीं । पाटलीपुत्र का संस्करण भगवान् के निर्वाण के बाद करीब डेढ़ सौ वर्ष बाद हुआ। विक्रम पांचवी शताब्दी में वलभी में जो संस्करण हुआ, वही आज हमारे सामने है, किन्तु उसमें जो संकलन हुआ, वह प्राचीन वस्तुओं का ही हुआ है। केवल नन्दीसूत्र तत्कालीन रचना है, और कुछ ऐसी घटनाओं का जिक्र मिलाया गया है, जो वीरनिर्वाण के बाद छह सौ से भी अधिक वर्ष बाद घटी हो । यदि ऐसे कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो अधिकांश ईसवी सन् के पूर्व का है, इसमें सन्देह नहीं ।
आगम में तत्कालीन सभी विद्याओं का समावेश हुआ है । दर्शन से सम्बद्ध आगम ये हैं-सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, भगवती (व्याख्या-प्रज्ञप्ति), प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, नन्दी और अनुयोगद्वार।
सूत्रकृताङ्ग में सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में मतान्तरों का निषेध किया है । किसी ईश्वर या ब्रह्म आदि ने इस विश्व को नहीं बनाया, इस बात का स्पष्टीकरण किया गया है । आत्मा शरीर से भिन्न है और वह एक स्वतन्त्र द्रव्य है, इस बात को बलपूर्वक प्रतिपादित करके भूतवादियों का खण्डन किया गया है। अद्वैतवाद का निषेध करके नानात्मवाद का प्रतिपादन किया है। क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद
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