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________________ ४ आगम-युग का जैन दर्शन है । यदि उस सनातन सत्य की ओर दृष्टि दी जाए और आविर्भाव के प्रकारों की उपेक्षा की जाए तो यही कहना होगा, कि जो रागद्वेष को जीतकर-जिन होकर उपदेश देगा, वह आचार का सनातन सत्य सामायिक, समभाव, विश्ववात्सल्य एवं विश्वमैत्री का तथा विचार का सनातन सत्य, स्याद्वाद, अनेकान्तवाद एवं विभज्यवाद का ही उपदेश देगा। वैसा कोई काल नहीं, जब उक्त सत्य का अभाव हो। अतएव जैन आगम को इस दृष्टि से अनादि अनन्त कहा जाता है, वेद की तरह अपौरुषेय कहा जाता है। एक स्थान पर कहा गया है कि ऋषभआदि तीर्थङ्करों की शरीर-सम्पत्ति और वर्धमान की शरीर सम्पत्ति में अत्यन्त वैलक्षण्य होने पर भी सभी के धृति, शक्ति और शरीर-रचना का विचार किया जाए तथा उनकी आन्तरिक योग्यता-केवल ज्ञान का विचार किया जाए,तो उन सभी की योग्यता में कोई भेद न होने के कारण उनके उपदेश में कोई भेद नहीं . हो सकता । और दूसरी बात यह भी है, कि संसार में प्रज्ञापनीय भाव तो अनादि अनन्त हैं । अतएव जब कभी सम्यग्ज्ञाता उनका प्ररूपण करेगा, तो कालभेद से प्ररूपणा में भेद नहीं हो सकता। इसीलिए कहा जाता है कि द्वादशांगी अनादि अनन्त है । सभी तीर्थङ्करों के उपदेश की एकता का उदाहरण शास्त्र में भी मिलता है। आचारांग सूत्र में कहा गया है, कि “जो अरिहंत हो गए, जो अभी वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, उन सभी का एक ही उपदेश है, कि किसी भी प्राण, जीव, भूत और सत्त्व की हत्या मत करो, उनके ऊपर अपनी सत्ता मत जमाओ, उनको गुलाम मत बनाओ और उनको मत सताओ, यही धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और विवेकी पुरुषों ने बताया है।" सत्य का आविर्भाव किस रूप में हुआ, किसने किया, कब किया । और कैसे किया, इस व्यावहारिक दृष्टि से विचार किया जाए, तो जैन । २ बृहत्कल्पभाष्य २०२-२०३. प्राचारांग-अ० ४ ० १२६. सूत्रकृतांग २-१-१५, २-२-४१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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