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एक पौरुषेयता और अपौरुषेयता :
ब्राह्मण-धर्म में श्रुति (वेद) का और बौद्धधर्म में त्रिपिटक का जैसा महत्त्व है, वैसा ही जैन धर्म में श्रुत (आगम) गणिपिटक का महत्त्व है। ब्राह्मण दार्शनिक मीमांसकों ने वेदविद्या को सनातन मानकर अपौरुषेय बताया और नैयायिक-वैशेषिक आदि दार्शनिकों ने उसे ईश्वरप्रणीत बताया, किन्तु वस्तुतः देखा जाए, तो दोनों के मत से यही फलित होता है कि वेद-रचना का समय अज्ञात ही है। इतिहास उसका पता नहीं लगा सकता। इसके विपरीत बौद्ध त्रिपिटक और जैन गणिपिटक पौरुषेय हैं। ईश्वर प्रणीत नहीं हैं, और उनकी रचना के काल का भी इतिहास को पता है।
मनुष्य पुराणप्रिय है । यह भी एक कारण था, कि वेद अपौरुषेय माना गया। जैनों के सामने भी यह आक्षेप हुआ होगा, कि तुम्हारे आगम तो नये हैं, उसका कोई प्राचीन मूल आधार नहीं है। इसका उत्तर दिया गया कि द्वादशांगभूत गणिपिटक कभी नहीं था, यह भी नहीं और कभी नहीं है, यह भी नहीं, और कभी नहीं होगा यह भी नहीं। वह तो था, है और होगा। वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है अवस्थित है और नित्य है'।
जब यह उत्तर दिया गया, तब उसके पीछे तर्क यह था कि पारमार्थिक दृष्टि से देखा जाए, तो सत्य एक ही है, तथ्य एक ही है। . विभिन्न देश, काल और पुरुष की दृष्टि से उस सत्य का आविर्भाव नाना प्रकार से होता है, किन्तु उन आविर्भावों में एक ही सनातन सत्य अनुस्यूत
देखो समवायांगगत वादशांगपरिचय, तथा नन्दी सू० ५७.
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