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________________ २६६ प्रागम-युग का जन-दर्शन मतिज्ञान आदि के लब्धि और उपयोग ऐसे दो भेदों को स्वीकार किया ही है । किन्तु प्राचार्य कुन्दकुन्द ने मतिज्ञान के उपलब्धि, भावना और उपयोग ये तीन भेद भी किए हैं।६९ । प्रस्तुत में उपलब्धि, लब्धि-समानार्थक नहीं है । वाचक का मति उपयोग-उपलब्धि शब्द से विवक्षित जान पड़ता है । इन्द्रियजन्य ज्ञानों के लिए दार्शनिकों में उपलब्धि शब्द प्रसिद्ध ही है । उसी शब्द का प्रयोग आचार्य ने उसी अर्थ में प्रस्तुत किया है । इन्द्रियजन्य ज्ञान के बाद मनुष्य उपलब्ध विषय में संस्कार दृढ़ करने के लिए जो मनन करता है, वह भावना है । इस ज्ञान में मन की मुख्यता है । इसके बाद उपयोग है। यहाँ उपयोग शब्द का अर्थ केवल ज्ञानव्यापार नहीं, किन्तु भावित विषय में प्रात्मा की तन्मयता ही उपयोग शब्द से आचार्य को इष्ट है, यह जान पड़ता है । श्रुतज्ञान : वाचक ने 'प्रमाणनयरधिगमः' (१.६) इस सूत्र में नयों को प्रमाण से पृथक् रखा है। वाचक ने पाँच ज्ञानों के साथ प्रमाणों का अभेद तो बताया ही है,किन्तु नयों को किस ज्ञान में समाविष्ट करना, इसकी चर्चा नहीं की है। आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रुत के भेदों की चर्चा करते हुए नयों को भी श्रुत का एक भेद बतलाया है । उन्होंने श्रुत के भेद इस प्रकार किए हैं-लब्धि, भावना, उपयोग और नय।। आचार्य ने सम्यग्दर्शन की व्याख्या करते हुए कहा है, कि आप्तआगम और तत्व की श्रद्धा सम्यग्दर्शन है१७२ । आप्त के लक्षण में अन्य गुणों के साथ क्षुधा-तृषा आदि का अभाव भी बताया है । अर्थात् उन्होंने आप्त की व्याख्या दिगम्बर मान्यता के अनुसार की है । आगम की १६९ पंचास्ति० ४२ । १० तत्वार्थ० १.१०। १७१ पंचा० ४३। १७२ नियमसार ५॥ १५३ नियमसार ६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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