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प्रागमोत्तर जैन-दर्शन
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ज्ञान सर्वज्ञ को युगपद् होता है, ऐसा ही मानना चाहिए१६१ । क्योंकि यदि वह त्रैकालिक द्रव्यों और उनके पर्यायों को युगपद् न जानकर क्रमशः जानेगा, तब तो वह किसी एक द्रव्य को भी उनके सभी पर्यायों के साथ नहीं जान सकेगा।६२ । और जब एक ही द्रव्य को उसके अनन्त पर्यायों के साथ नहीं जान सकेगा, तो वह सर्वज्ञ कैसे होगा १3 ? दूसरी बात यह भी है, कि यदि अथों की अपेक्षा करके ज्ञान क्रमशः उत्पन्न होता है, ऐसा माना जाए, तब कोई ज्ञान नित्य, क्षायिक और सर्व-विषयक सिद्ध होगा नहीं। यही तो सर्वज्ञ-ज्ञान का माहात्म्य है, कि वह नित्य कालिक सभी विषयों को युगपत् जानताहै'६५।
किन्तु जो पर्याय अनुत्पन्न हैं और विनष्ट हैं, ऐसे असद्भ त पर्यायों को केवलज्ञानी किस प्रकार जानता है ? इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने दिया है, कि समस्त द्रव्यों के सद्भत और असद्भत सभी पर्याय विशेष रूप से वर्तमानकालिक पर्यायों की तरह स्पष्ट प्रतिभासित होते हैं१६६ । यही तो उस ज्ञान को दिव्यता है, कि वह अजात और नष्ट दोनों पर्यायों की जान लेता है।६। मतिज्ञान :
___आचार्य कुन्दकुन्द ने मतिज्ञान के भेदों का निरूपण प्राचीन परम्परा के अनुकूल अवग्रह आदि रूप से करके ही संतोष नहीं माना, किन्तु अन्य प्रकार से भी किया है । वाचक ने एक जीव में अधिक से अधिक चार ज्ञानों का योगपद्य मानकर भी कहा है, कि उन चारों का उपयोग तो क्रमशः ही होगा१६८ । अतएव यह तो निश्चित है, कि वाचक ने
१११ प्रवचन० १.४७ । १६२ प्रवचन० १.४८। १६३ वही १.४६ । १६४ वही १.५० । १६५ वही १.५१ । १६६ प्रवचन० १.३७,३८ । १६७ वही १.३६ । १३८ तस्वार्थ भा० १.३१ ।
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