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प्रागमोत्तर जैन-दर्शन
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प्रयत्न किया है । उनका कहना है, कि दूसरे दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञानों का प्रत्यक्ष मानते हैं, किन्तु वह प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? क्योंकि इन्द्रियाँ तो अनात्मरूप होने से परद्रव्य हैं। अतएव इन्द्रियों के द्वारा उपलब्ध वस्तु का ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । इन्द्रियजन्य ज्ञान के लिए परोक्ष शब्द ही उपयुक्त है, क्योंकि पर से होने वाले ज्ञान ही को तो परोक्ष कहते हैं । ज्ञप्ति का तात्पर्य :
ज्ञान से अर्थ जानने का मतलब क्या है ? क्या ज्ञान अर्थरूप हो जाता है अथवा ज्ञान और ज्ञय का भेद मिट जाता है ? या जैसा अर्थ का प्राकार होता है, वैसा आकार ज्ञान का हो जाता है ? या ज्ञान अर्थ में प्रविष्ट हो जाता है ? या अर्थ ज्ञान में प्रविष्ट हो जाता है ? या ज्ञान अर्थ में उत्पन्न होता है ? इन प्रश्नों का उत्तर प्राचार्य ने अपने ढंग से देने का प्रयत्न किया है ।
प्राचार्य का कहना है, कि ज्ञानी ज्ञान स्वभाव है और अर्थ ज्ञेय स्वभाव । अतएव भिन्न स्वभाव होने से ये दोनों स्वतन्त्र हैं एक की वृत्ति दूसरे में नहीं है१५ । ऐसा कह करके वस्तुतः प्राचार्य ने यह बताया है, कि संसार में मात्र विज्ञानाद्वैत नहीं, बाह्यार्थ भी हैं । उन्होंने दृष्टान्त दिया है, कि जैसे चक्षु अपने में रूप का प्रवेश न होने पर भी रूप को जानती है, वैसे ही ज्ञान वाह्यार्थों को विषय करता है १८ । दोनों में विषय-विषयी भावरूप सम्बन्ध को छोड़ कर और कोई सम्बन्ध नहीं है । 'अर्थों में ज्ञान है' इसका तात्पर्य बतलाते हुए प्राचार्य ने इन्द्रनील मणि का दृष्टान्त दिया है, और कहा है, कि जैसे दूध के बर्तन में रखा हुआ इन्द्रनील मणि अपनी दीप्ति से दूध के रूप का अभिभव करके उसमें रहता है, वैसे ही ज्ञान भी अर्थों में है। तात्पर्य यह है, कि दूधगत मणि स्वयं द्रव्यतः सम्पूर्ण दूध में व्याप्त नहीं है, फिर भी उसकी दीप्ति के कारण समस्त दूध नील वर्ण का दिखाई देता है, उसी प्रकार ज्ञान सम्पूर्ण अर्थ में द्रव्यतः नहीं
१५६ प्रवचनसार ५७,५८ । ६५७ प्रवचन० १२८ । १५८ प्रवचन० १.२८,२६ ।
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