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आगम-युग का जैन-दर्शन
उसमें दार्शनिक प्रसिद्ध समारोप का व्यवच्छेद अभिप्रेत है। उन्होंने कहा है“संसयविमोहविन्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं ॥"
-नियमसार ५१ संशय, विमोह और विभ्रम से वजित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ।
एक दूसरी बात भी ध्यान देने योग्य है । विशेषकर बौद्ध ग्रादि दार्शनिकों ने सम्यग्ज्ञान के प्रसंग में हेय और उपादेय शब्द का प्रयोग किया है । आचार्य कुन्दकुन्द भी हेयोपादेय तत्त्वों के अधिगम को सम्यग्ज्ञान कहते हैं । १५3 स्वभावज्ञान और विभावज्ञान :
वाचक ने पूर्व परम्परा के अनुसार मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्याय ज्ञानों को क्षायोपशमिक और केवल को क्षायिक ज्ञान कहा है। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द के दर्शन की विशेषता यह है, कि वे सर्वगम्य परिभाषा का उपयोग करते हैं । अतएव उन्होंने क्षायोपशमिक ज्ञानों के लिए विभाव ज्ञान और क्षायिक ज्ञान के लिए स्वभाव ज्ञान-इन शब्दों का प्रयोग किया है१४ । उनकी व्याख्या है, कि कार्मोपाधिवजित जो पर्याय हों, वे स्वाभाविक पर्याय हैं और कर्मोपाधिक जो पर्याय हो, वे वैभाविक पर्याय हैं । इस व्याख्या के अनुसार शुद्ध आत्मा का ज्ञानोपयोग स्वभावज्ञान है और अशुद्ध आत्मा का ज्ञानोपयोग विभावज्ञान है । प्रत्यक्ष-परोक्ष :
प्राचार्य कुन्दकुन्द ने वाचक की तरह प्राचीन आगमों की व्यवस्था के अनुसार ही ज्ञानों में प्रत्यक्षत्व-परोक्षत्व की व्यवस्था की है। पूर्वोक्त स्वपरप्रकाश की चर्चा के प्रसंग में प्रत्यक्ष-परोक्ष ज्ञान की जो व्याख्या दी गई है, वही प्रवचनसार (१.४०.४१,५४-५८ में भी है, किन्तु प्रवचनसार में उक्त व्याख्याओं को युक्ति से भी सिद्ध करने का
१५3 "अधिगमभावो गाणं हेयोपादेयतच्चाणं ।" नियमसार ५२ । सुत्तपाइड ५। नियमसार ३८ ।
१५४ नियमसार १०,११,१२ । १५५ नियमसार १५ ।
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