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________________ २५८ आगम-युग का जैन-दर्शन इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने भी आत्मा और अनात्मा, बन्ध और मोक्ष का वर्णन करके साधक को उपदेश दिया है, कि आत्मा और बन्ध दोनों के स्वभाव को जानकर जो बन्धन में नहीं रमण करता, वह मुक्त हो जाता है१४ । बद्ध आत्मा भी प्रज्ञा के सहारे आत्मा और अनात्मा का भेद जान लेता है४६ । उन्होंने कहा है "पण्णाए घेतवो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो। पण्णाए घेतव्वो जो दटठा सो अहं तु णिच्छयदो ॥ पण्णाए घेतव्वो जो णादा सो अहं तु णिच्छयदो। प्रवसेसा जे भावा ते मन्झ परेति णादव्वा ॥ ---समयसार ३२५-२७ आचार्य के इस वर्णन में आत्मा के द्रष्टुत्व और ज्ञातृत्व की जो बात कही गई है, वह सांख्य संमत पुरुष के द्रष्ट्टत्व की याद दिलाती है । प्रमाण-चर्चा : आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में स्वतन्त्रभाव से प्रमाण की चर्चा तो नहीं की है। और न उमास्वाति की तरह शब्दतः पाँच ज्ञानों को प्रमाण संज्ञा ही दी है। फिर भी ज्ञानों का जो प्रासंगिक वर्णन है, वह दार्शनिकों की प्रमाणचर्चा से प्रभावित है ही। अतएव ज्ञानचर्चा को ही प्रमाणचर्चा मान कर प्रस्तुत में वर्णन किया जाता है। इतना तो किसी से छिपा नहीं रहता, कि वाचक उमास्वाति की ज्ञानचर्चा से आचार्य कुन्दकुन्द को ज्ञानचर्चा में दार्शनिक विकास की मात्रा अधिक है । यह बात आगे की चर्चा से स्पष्ट हो सकेगी। अद्वैत दृष्टि : आचार्य कुन्दकुन्द का श्रेष्ठ ग्रन्थ समयसार है। उसमें उन्होंने तत्वों का विवेचन नैश्चयिक दृष्टि का अवलम्बन लेकर किया है । खास १४५ समयसार ३२१ । १४६ वही ३२२। १४० सांख्यका० १६,६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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