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________________ २५० आगम-युग का जैन-दर्शन गमधातु को ज्ञानार्थक मानकर सर्वगत का अर्थ किया है-सर्वज्ञ । शब्द वही रहा, किन्तु अर्थ जैनाभिप्रेत बन गया। जगत्कर्तत्व : आचार्य ने विष्णु के जगत्कर्तृत्व के मन्तव्य का भी समन्वय जैन दृष्टि से करने का प्रयत्न किया है । उन्होंने कहा है, कि व्यवहार-नय के आश्रय से जैनसंमत जीवकर्तृत्व में और लोकसंमत विष्णु के जगत्कर्तृत्व में विशेष अन्तर नहीं है। इन दोनों मन्तव्यों को यदि पारमार्थिक माना जाए, तो दोष यह होगा कि दोनों के मत से मोक्ष की कल्पना असंगत हो जाएगी०४ । कर्तुत्वाकर्तत्वविवेक : सांख्यों के मत से आत्मा में कर्तृत्व नहीं१०५ है, क्योंकि उसमें परिणमन नहीं । कर्तृत्व प्रकृति में है, क्योंकि वह प्रसवधर्मा हैं।०६ । पुरुष वैसा नहीं । तात्पर्य यह है, कि जो परिणमनशील हो, वह कर्ता हो सकता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने भी आत्मा को सांख्यमत के समन्वय की दृष्टि से अकर्ता तो कहा ही है, किन्तु अकर्तृत्व का तात्पर्य जैन दृष्टि से उन्होंने बताया है, कि आत्मा पुद्गल कर्मों का अर्थात् अनात्म-परिणमन का कर्ता नहीं। जो परिणमनशील हो वह कर्ता है। इस सांख्यसंमत व्याप्ति के बल से आत्मा को कर्ता है भी कहा है क्योंकि वह परिणमनशील है। सांख्यसंमत आत्मा की कूटस्थता—अपरिणमनशीलता आचार्य को मान्य नहीं । उन्होंने जैनागम प्रसिद्ध आत्मपरिणमन का समर्थन किया है१०९ और सांख्यों का निरास करके आत्मा को स्वपरिणामों का कर्ता माना है। १०3 बौद्धों ने भी विभुत्व का स्वाभिप्रेत अर्थ किया है, कि "विभुत्वं पुनर्ज्ञानप्रहाणप्रभावसंपन्नता" मध्यान्तविभागटीका पृ० ८३ । १०४ समयसार ३५०-३५२ । १०५ सांख्यका० १६ । १०६ वही ११ । १०७ समयसार ८१-८८ । १०८ वही ८६,९८ । प्रवचन० २.६२ से । नियमसार १८ । १०९ प्रवचन १.४६ । १.८-से । ११० समयसार १२८ से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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