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________________ श्रागमोत्तर जैन-दर्शन २४ε परमात्मा के विषय में आचार्य ने जब यह कहा, कि वह न कार्य है और न कारण, तब बौद्धों के असंस्कृत निर्वाण की, वेदान्तियों के ब्रह्मभाव की तथा सांख्यों के कूटस्थ पुरुष मुक्त-स्वरूप की कल्पना का समन्वय उन्होंने किया है । १०२ तत्कालीन नाना विरोधी वादों का सुन्दर समन्वय उन्होंने परमात्मा के स्वरूप वर्णन के बहाने कर दिया है। उससे पता चलता है, कि वे केवल पुराने शाश्वत और उच्छेदवाद से ही नहीं, बल्कि नवीन विज्ञानाद्वैत और शून्यवाद से भी परिचित थे । उन्होंने परमात्मा के विषय में कहा है " सस्सदमध उच्छेदं भव्वमभव्वं च सुष्णमिदरं च । विष्णाणमविण्णाणं ण वि जुज्जदि प्रसदि सम्भावे ॥" - पत्रचा० ३७ यद्यपि उन्होंने जैनागमों के अनुसार आत्मा को काय - परिमाण भी माना है, फिर भी उपनिषद् और दार्शनिकों में प्रसिद्ध आत्मसर्वगतत्वविभुत्व का भी अपने ढंग से समर्थन किया है, कि - " श्रादा जाणपमाणं गाणं णेयप्पमाण मुद्दिट्ठ । णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं । । सब्बगदो जिरण वसहो सध्ये विय तग्गया जगदि अट्ठा । गाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिया ।।" --प्रवचन० १ २३, २६ यहाँ सर्वगत शब्द कायम रखकर अर्थ में परिवर्तन किया गया है, क्योंकि उन्होंने स्पष्ट ही कहा है, कि ज्ञान या आत्मा सर्वगत है । इसका मतलब यह नहीं, कि ज्ञानी ज्ञेय में प्रविष्ट है, या व्याप्त है, किन्तु जैसे चक्षु अर्थ से दूर रह कर भी उसका ज्ञान कर सकती है, वैसे आत्मा भी सर्व पदार्थों को जानता भर है—प्रवचन० १.२८-३२ । अर्थात् दूसरे दार्शनिकों ने सर्वगत शब्द का अर्थ, गम धातु को गत्यर्थक मानकर सर्वव्यापक या विभु, ऐसा किया है, जब कि आचार्य ने १०२ पंचा० ३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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