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भागमोत्तर जैन-दर्शन
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रखा है, (गा० १४) दोनों ग्रन्थों में चार भंगों का ही शब्दतः उपादान है और शेष तीन भंगों की योजना करने की सूचना की है । इस सप्तभंगी का समर्थन आचार्य ने भी द्रव्य और पर्यायनय के आश्रय से किया है (प्रवचन २.१६) । मूर्तामूर्त-विवेक :
मूल वैशेषिक-सूत्रों में द्रव्यों का साधर्म्य-वैधर्म्य मूर्तत्व-अमूर्तत्व धर्म को लेकर बताया नहीं है। इसी प्रकार गुणों का भी विभाग मूर्तगुण अमूर्तगुण उभयगुग रूप से नहीं किया है परन्तु प्रशस्तपाद में ऐसा हुआ है । अतएव मानना पड़ता है, कि प्रशस्तपाद के समय में ऐसी निरूपण की पद्धति प्रचलित थी।
जैन आगमों में और वाचक के तत्वार्थ में द्रव्यों के साधर्म्य वैधर्म्य प्रकरण में रूपी और अरूपी शब्दों का प्रयोग देखा जाता है । किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ने उन शब्दों के स्थान में मूर्त और अमूर्त शब्द का प्रयोग किया है । इतना ही नहीं, किन्तु गुणों को भी मूर्त और अमूर्त ऐसे विभागों में विभक्त किया है । आचार्य कुन्दकुन्द का यह वर्गीकरण वैशेषिक प्रभाव से रहित है, यह नहीं कहा जा सकता।
____ आचार्य कुन्दकुन्द ने मूर्त को जो व्याख्या की है, वह अपूर्व तो है, किन्तु निर्दोष है ऐसा नहीं कहा जा सकता । उन्होंने कहा है कि जो इंद्रियग्राह्य है, वह मूर्त है और शेष अमूर्त है.२ । इस व्याख्या के स्वीकार करने पर परमाणु पुद्गल को जिसे स्वयं आचार्य ने मूर्त कहा है और इन्द्रियग्राह्य कहा है. अमूर्त मानना पड़ेगा । परमाणु में रूप एवं रस आदि होने से ही स्कन्ध में वे होते हैं और इसीलिए यह प्रत्यक्ष होता है । यदि यह मानकर परमाणु में इन्द्रियग्राह्यता की योग्यता का स्वीकार
९० पंचा० १०४ । ९१ प्रवचन० २. ३८,३६ । ९२ पंचा० १०६ । प्रवचन० २. ३६ । ९3 नियमसार २६ । पंचा० ८४ ।
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