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२४२ श्रागम-युग का जन-दर्शन
परित्याग नहीं करते । स्वभाव भेद के कारण एकत्र वृत्ति होने पर भी उन सभी का भेद बना रहता है ।
धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों अमूर्त हैं और भिन्नावगाह नहीं हैं, तब तीनों के बजाय एक आकाश का ही स्वभाव ऐसा क्यों न माना जाए, जो अवकाश, गति और स्थिति में कारण हो, यह मानने पर तीन द्रव्य के बजाय एक आकाश द्रव्य से ही काम चल सकता है - इस शंका का समाधान भी आचार्य ने दिया है, कि यदि आकाश को अवकाश की तरह गति और स्थिति में भी कारण माना जाए, तो ऊर्ध्वगति स्वभाव जीव लोकाकाश के अन्त पर स्थिर क्यों हो जाते हैं ? इसलिए आकाश के अतिरिक्त धर्म-अधर्म द्रव्यों को मानना चाहिए। दूसरी बात यह भी है, कि यदि धर्म-अधर्म द्रव्यों को आकाशातिरिक्त न माना जाए, तब लोकालोक का विभाग भी नहीं बनेगा " ।
इस प्रकार स्वभावभेद के कारण पृथगुपलब्धि होने से तीनों को पृथक् - अन्य सिद्ध करके आचार्य का अभेद पक्षपाती मानस संतुष्ट नहीं हुआ, अतएव तीनों का परिमाण समान होने से तीनों को अपृथग्भूत भी कह दिया है" ।
स्याद्वाद एवं सप्तभङ्गी :
वाचक के तत्त्वार्थ में स्वाद्वाद का जो रूप है, वह आगमगत स्याद्वाद के विकास का सूचक नहीं है । भगवती सूत्र की तरह वाचक ने भी भंगों में एकवचन आदि वचनभेदों को प्राधान्य दिया है । किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में सप्तभंगी का वही रूप है, जो बाद के सभी दार्शनिकों में देखा जाता है । अर्थात् भंगों में आचार्य ने वचनभेद को महत्त्व नहीं दिया है । आचार्य ने प्रवचनसार में ( २.२३) अवक्तव्य भंग को तृतीय स्थान दिया है, किन्तु पञ्चास्तिकाय में उसका स्थान चतुर्थं
८७ " अण्णोष्णं पविसंता दिता श्रोगासमण्णमण्णस्स ।
मेलंता वि य निच्च सगं सभावं ण विजर्हति ।। " पंचा० ७ ।
૯. पंचा० ६६- १०२ ।
पंचा० १०३ ।
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