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२३० श्रागम-युग का जैन दर्शन
भिन्न-भिन्न प्रकार से जानी जाती है । इसमें यदि विवाद को अनवकाश है, तो नयवाद में भी विवाद नहीं हो सकता है । यह भी वाचक ने प्रतिपादन किया है- (१.३५)
वाचक के इस मन्तव्य की तुलना न्यायभाष्य के निम्न मन्तव्य से करना चाहिए । न्यायसूत्रगत – संख्यैकान्तासिद्धि:' ( ४. १,४१ ) की व्याख्या करते समय भाष्यकार ने संख्यैकान्तों का निर्देश किया है और बताया है, कि ये सभी संख्याएँ सच हो सकती हैं, किसी एक संख्या का एकान्त युक्त नहीं ४६ – “प्रथेमे संख्यैकान्ताः सर्वमेकं सदविशेषात् । सर्वं द्वेषा नित्यानित्यभेदात् । सर्वं त्रेधा ज्ञाता ज्ञानं ज्ञेयमिति । सर्वं चतुर्धा प्रमाता प्रमाणं प्रमेयं प्रमितिरिति । एवं यथासंभवमन्येऽपि इति । " न्यायभा० ४.१.४१. ।
वाचक के इस स्पष्टीकरण में अनेक नये वादों का बीज है— जैसे ज्ञानभेद से अर्थभेद है या नहीं ? प्रमाण-संप्लव मानना योग्य है, या विप्लव ? धर्मभेद से धर्मिभेद है या नहीं ? सुनय और दुर्णय का भेद, आदि । इन वादों के विषय में बाद के जैन दार्शनिकों ने विस्तार से चर्चा की है ।
वाचक के कई मन्तव्य ऐसे हैं, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों संप्रदायों के अनुकूल नहीं । उनकी चर्चा पण्डित श्री सुखलालजी ने तत्त्वार्थ सूत्र के परिचय में की है । अतएव उस विषय में यहाँ विस्तार करना अनावश्यक है । उन्हीं मन्तव्यों के आधार पर वाचक की परम्परा का निर्णय होता है, कि वे यापनीय थे । उन मन्तव्यों में दार्शनिक दृष्टि से कोई महत्त्व का नहीं है । अतएव उनका वर्णन करना, यहाँ प्रस्तुत भी नहीं है ।
४६ " ते खल्विमे संख्यैकान्ता यदि विशेषकारितस्य प्रथमेदविस्तारस्य प्रत्याख्यानेन वर्तन्ते, प्रत्यक्षानुमानागमविरोधान्मिथ्यावादा भवन्ति । श्रथाभ्यनुज्ञानेन वर्तन्ते समानधर्मकारितोऽर्थसंग्रहों विशेषकारितश्च प्रथमेद इति एवं एकान्तत्वं जहतीति ।"
न्यायभा० ४.१.४३.
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