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श्रागमोत्तर जैन-दर्शन
जीवप्रादि विषय में भी जो उनके उपयोगआदि गुण हैं, उन्हीं का लक्षणरूप से भगवती में निर्देश है, इससे यही फलित होता है, कि आगमकाल में गुण ही लक्षण समझा जाता रहा ।
ग्रहण का अर्थ क्या है, यह भी भगवती के निम्न सूत्र होता है
"पोग्गलत्थकाए णं जीवाणं श्रोरालिय-वेउब्विय श्राहारए तेयाकम्मए सोइ दियचक्विंदिय - घाणिदिय-- जिब्भिदिय फासिदिय - मणजोग-वयजोग-कायजोग - श्राणापाणूणं च गहणं पवत्तति गहणलक्खणे णं पोग्गलत्थिकाए" भगवती १३.४.४८१ ।
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जीव अपने शरीर, इन्द्रिय, योग और श्वासोच्छ्वास रूप से पुद्गलों का ग्रहण करता है, क्योंकि पुद्गल का लक्षण ही ग्रहण है । फलित यह होता है, कि पुद्गल में जीव के साथ सम्बन्ध होने की योग्यता का प्रतिपादन उसके सामान्य लक्षण ग्रहण अर्थात् सम्बन्ध योग्यता के आधार पर किया गया है । तात्पर्य इतना ही जान पड़ता है कि जो बंधयोग्य है, वह पुद्गल है । इस प्रकार पुद्गलों में परस्पर और जीव के साथ बद्ध होने की शक्ति का प्रतिपादन ग्रहण शब्द से किया गया है ।
से स्पष्ट
इस व्याख्या से पुद्गल का स्वरूप- बोध स्पष्ट रूप से नहीं होता । उत्तराध्ययन में उसकी जो दूसरी व्याख्या (२८.१२ ) की गई है, वह स्वरूपबोधक है
" सद्दन्धयारउज्जोम्रो पहा छायातवेइ वा । वण्णरसगन्धफासा पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥ "
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दर्शनान्तर में शब्दप्रादि को गुण और द्रव्य मानने की भिन्न भिन्न कल्पनाएँ प्रचलित हैं । इसके स्थान में उक्त सूत्र में शब्दप्रादि का समावेश पुद्गल द्रव्य में करने की सूचना की है और पुद्गल द्रव्य की व्याख्या भी की है, कि जो वर्ण आदि युक्त है, सो पुद्गल ।
वाचक के सामने आगमोक्त द्रव्यों का निम्न वर्गीकरण ही था
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