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________________ १८६ भागम-युग का जैन-दर्शन "तर्पणालोडिका-जलमिश्रित सक्तु । धूर्त ने उतनी कीमत में शकट और तित्तरी-दोनों ले लिये । इसी प्रकार वाद में भी प्रतिवादी जो छल प्रयोग करता है वह व्यंसक हेतु है । जैन वादी के सामने कोई कहे कि जिन मार्ग में जीव भी अस्ति है और घट भी अस्ति है तब तो अस्तित्वाविशेषात् जोव और घट का ऐक्य मानना चाहिए। यदि जीव से अस्तित्व को भिन्न मानते हो तब जीव का अभाव होगा। यह व्यंसक हेतु है। (४) लूषक-व्यंसक हेतु के उत्तर को लूषक हेतु कहते है । अर्थात् इससे व्यंसक हेलु से आपादित अनिष्ट का परिहार होता हैं। इसके उदाहरण में भी एक धूर्त के छल और प्रतिच्छल की कथा है । ककडी से भरा शकट देखकर धूर्त ने शाकटिक से पूछा--शकट की ककडी खाजाने वाले को क्या दोगे ? उत्तर मिला-ऐसा मोदक जो नगर द्वार से बाहर न निकल सके। धूर्त शकट पर चढ़कर थोड़ा थोडा सभी ककडीमें से खाकर इनाम मांगने लगा । शाकटिक ने आपत्ति की कि तुमने सभी ककडी तो खाई नही। धूर्त ने कहा कि अच्छा तब बेचना शुरू करो। इतने में एक ग्राहक ने कहा-'ये सभी ककडी तो खाई हुई हैं' सुनकर धूर्त ने कहा देखो 'सभी ककडी खाई हैं' ऐसा अन्य लोग भी स्वीकार करते हैं । मुझे इनाम मिलना चाहिए । तब शाकटिक ने भी प्रतिच्छल किया। एक मोदक नगर द्वार के पास रखकर कहा 'यह मोदक द्वार से नहीं निकलता । इसे ले लो । जैसा ककड़ी के साथ 'खाई हैं' प्रयोग देखकर धूर्त ने छल किया था वैसा ही शाकटिक ने 'नहीं निकलता' ऐसे प्रयोग द्वारा प्रतिछल किया। इसी प्रकार वादचर्चा में उक्त व्यंसक हेतु का प्रत्युत्तर लूषक हेतु का प्रयोग करके देना चाहिये । जैसे कि यदि तुम जीव और घट का ऐक्य सिद्ध करते हो वैसे तो अस्तित्व होने से सभी भावों का ऐक्य सिद्ध हो जायगा। किन्तु १८ तर्पणालोडिका के दो अर्थ हैं जल मिश्रित सक्तु और सक्तु का मिश्रण करती स्त्री। ५० "तउसगवंसग लूसगहेउम्मि य मोयगो य पुरषो।" वही गा० ८८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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