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वाद-विद्या-खण्ड
( पृ० ७८) बताया गया है। अब हम हेतुशब्द के एक और अर्थ की ओर भी वाचक का ध्यान दिलाना चाहते हैं । स्थानांग में हेतु के जो—यापक आदि निम्नलिखित चार भेद बताए हैं उनकी व्याख्या देखने से स्पष्ट है कि यापक हेतु असद्धेतु है और स्थापक ठीक उससे उलटा है। इसी प्रकार व्यंसक और लूषक में भी परस्पर विरोध है । अर्थात् ये चार हेतु दो द्वन्द्वों में विभक्त हैं ।
यापक हेतु में मुख्यतया साध्यसिद्धिका नहीं पर प्रतिवादी को जात्युत्तर देने का ध्येय हैं । उसमें कालयापन करके प्रतिवादी को धोखा दिया जाता है । इसके विपरीत स्थापक हेतु से अपने साध्य को शीघ्र सिद्ध करना इष्ट है । व्यंसक हेतु यह छल प्रयोग है तो लूषक हेतु प्रतिप्रतिच्छल है । किन्तु प्रतिच्छल इस प्रकार किया जाता है जिससे कि प्रतिवादी के पक्ष में प्रसंगापादान हो और परिणामतः वह वादी के पक्ष को स्वीकृत करने के लिए बाध्य हो । अब हम यापकादि का शास्त्रोक्त विवरण देखें - ( स्थानांग सू०
३३८ )
१ जावते ( यापकः ) २ धावते (स्थापकः ) ३ वंसते ( व्यंसकः )
४ लूसते ( लूषकः )
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इन्हीं हेतुओं का विशेष वर्णन दशवैकालिक सूत्र की नियुक्ति ( गा० =६ से) आ० भद्रबाहु ने किया है उसी के आधार से उनका परिचय यहाँ कराया जाता है, क्योंकि स्थानांग में हेतुओं के नाममात्र उपलब्ध होते हैं । भद्रबाहु ने चारों हेतुओं को लौकिक उदाहरणों से स्पष्ट किया है किन्तु उन हेतुओं का द्रव्यानुयोग की चर्चा में कैसे प्रयोग होता है उसका स्पष्टीकरण दशवैकालिकचूर्णी में है इसका भी उपयोग प्रस्तुत विवरण में किया है ।
(१) यापक – जिसको विशेषणों की बहुलता के कारण प्रतिवादी शीघ्र न समझ सके और प्रतिवाद करने में असमर्थ हो, ऐसे हेतु को कालयापन में कारण होने से यापक कहा जाता है । अथवा जिसकी
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