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वाद-विद्या-खण्ड १८१ न्यायसूत्रसंमत अधिक निग्रहस्थान यहाँ अभिप्रेत है। ६. स्वयंकृत दोष ।
१०. परापादित दोष । ६ प्रश्न
स्थानांग सूत्र में प्रश्न के छ: प्रकार बताए गये हैं१. संशय प्रश्न २. व्युद्ग्र प्रश्न ३. अनुयोगी ४. अनुलोम ५. तथाज्ञान ६. अतथाज्ञान
वाद में, चाहे वह वीतराग कथा हो या जल्प हो, प्रश्न का पर्याप्त महत्त्व है। प्रस्तुत सूत्र में प्रश्न के भेदों का जो निर्देश है वह प्रश्नों के पीछे रही प्रष्टा की भावना या भूमिका के आधार पर है ऐसा प्रतीत होता है।
१. संशय को दूर करने के लिये जो प्रश्न पूछा जाय वह संशय प्रश्न है।
इस संशय ने न्याय सूत्र के सोलह पदार्थों में और चरक के वादपदों में स्थान पाया है।
संशय प्रश्न की विशेषता यह है कि उसमें दो कोटि का निर्देश होता है जैसे "किनु खलु अस्त्यकालमृत्युः उत नास्तीति" विमान० प्र० ८. सू० ४३ ।
२. प्रतिवादी जब अपने मिथ्याभिनिवेश के कारण प्रश्न करता है तब वह व्युद्ग्र प्रश्न है ।
३. स्वयं वक्ता अपने वक्तव्य को स्पष्ट करने के लिये प्रश्न खड़ा करके उसका उत्तर देता है तब वह अनुयोगी प्रश्न है अर्थात् व्याख्यान या परूपणा के लिये किया गया प्रश्न । चरक में एक अनुयोग वादपद है उसका लक्षण इस प्रकार चरक ने किया है
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