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________________ वाद-विद्या-खण्ड १७१ भगवती-सूत्र में लोक की शाश्वतता और अशाश्वतता, सान्तता और अनन्तता के विषय में, जीव की सान्तता, अनन्तता, एकता अनेकता आदि के विषय में, कर्म स्वकृत है, परकृत है कि उभयकृत हैक्रियमाण कृत है कि नहीं, इत्यादि विषय में भगवान महावीर के अन्य तीथिकों के साथ हुए वादों का तथा जैन श्रमणों के अन्य तीथिकों के साथ हुए वादों का विस्तृत वर्णन पद पद-पर मिलता है—देखो स्कंधक, जमाली आदि की कथाएँ। उत्तराध्ययनगत पाश्र्वानुयायी केशीश्रमण और भगवान महावीर के प्रधान शिष्य गणधर गौतम के बीच हुआ जैन-आचार विषयक वाद सुप्रसिद्ध है-अध्ययन–२३ । . भगवती सूत्र में भी पाश्र्वानुयायियों के साथ महावीर के श्रावक और श्रमणों के वादों का उल्लेख अनेक स्थानों पर है-भगवती-१.६; २.५; ५. ६; ६.३२ । सूत्रकृतांग में गौतम और पार्वानुयायी उदक पेढालपुत्त का वाद भी सुप्रसिद्ध है—सूय० २.७ । गुरु शिष्य के बीच होने वाला वाद वीतराग कथा कही जाती है, क्योंकि उसमें जय-पराजय को अवकाश नहीं । इस वीतराग कथा से तो जैनआगम भरे पड़े हैं । किन्तु विशेषतः इसके लिए भगवती सूत्र देखना चाहिए। उसमें भगवान के प्रधान शिष्य गौतम ने मुख्य रूप से तथा प्रसंगतः अनेक अन्य शिष्यों ने अनेक विषयों में भगवान से प्रश्न पूछे हैं और भगवान ने अनेक हेतुओं और दृष्टांतों के द्वारा उनका समाधान किया है। इत सब वादों से स्पष्ट है, कि जैन श्रमणों और श्रावकों में वाद कला के प्रति उपेक्षाभाव नहीं था। इतना ही नहीं, किन्तु धर्म प्रचार के साधन रूप से वाद-कला का पर्याप्त मात्रा में महत्त्व था। यही कारण है कि भगवान् महावीर के ऋद्धिप्राप्त शिष्यों की गणना में वाद-प्रवीण शिष्यों की पृथक् गणना की है। इतना ही नहीं, किन्तु सभी तीर्थकरों के शिष्यों की गणना में वादियों की संख्या पृथक् बतलाने की प्रथा हो गई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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