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चार जैन आगमों में वाद और वाद-विद्या :
१. वाद का महत्त्व- जैन धर्म आचार प्रधान है, किन्तु देश-काल की परिस्थिति का असर उसके ऊपर न हो, यह कैसे हो सकता है ? स्वयं भगवान महावीर को अपनी धर्मदृष्टि का प्रचार करने के लिए अपने चरित्र-बल के अलावा वाग्बल का प्रयोग करना पड़ा है। तब उनके अनुयायी मात्र चरित्र-बल के सहारे जैनधर्म का प्रचार और स्थापन करें, यह संभव नहीं।
__ भगवान् महावीर का तो युग ही, ऐसा मालूम देता है कि, जिज्ञासा का था । लोग जिज्ञासा-तृप्ति के लिए इधर-उधर घूमते रहे और जो भी मिला उससे प्रश्न पूछते रहे। लोग कोरे कर्म-काण्ड-यज्ञयागादि से हट करके तत्त्वजिज्ञासु होते जा रहे थे। वे अकसर किसी की बात को तभी मानते, जबकि वह तर्क की कसौटी पर खरी उतरे अर्थात् अहेतुवाद के स्थान में हेतुवाद का महत्त्व बढ़ता जा रहा था। अनेक लोग अपने आपको तत्त्व-द्रष्टा बताते थे, और अपने तत्त्व-दर्शन को लोगों में फैलाने के लिए उत्सुकतापूर्वक इधर से उधर विहार करते थे और उपदेश देते थे, या जिज्ञासु स्वयं ऐसे लोगों का नाम सुनकर उन के पास जाता था और नानाविध प्रश्न पूछता था। जिज्ञासु के सामने नाना मतवादों और समर्थक युक्तियों की धारा बहती रहती थी। कभी जिज्ञासु उन मतों की तुलना अपने आप करता था, तो कभी तत्त्वद्रष्टा ही दूसरों के मत की त्रुटि दिखा करके अपने मत को श्रेष्ठ सिद्ध करते रहे । ऐसे ही वाद प्रतिवाद में से वाद के नियमोपनियमों का विकास होकर क्रमशः वाद का भी एक शास्त्र बन गया। न्याय-सूत्र, चरक या प्राचीन बौद्ध तर्कशास्त्र में वादशास्त्र का जो विकसित रूप देखा जाता है, उसकी पूर्व भूमिका जैन आगम और बौद्धपिटकों में विद्यमान है । उपनिषदों में वाद
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