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दिया जा सकता था । किन्तु ऐसा न करके पर दर्शन में प्रसिद्ध प्रमाणों का आश्रय लेकर के उत्तर दिया गया है। यह सूचित करता है कि जैनेतरों में प्रसिद्ध प्रमाणों से शास्त्रकार अनभिज्ञ नहीं थे और वे स्वसंमत ज्ञानों की तरह प्रमाणों को भी ज्ञप्ति में स्वतन्त्र साधन मानते थे ।
स्थानांगसूत्र में प्रमाण शब्द के स्थान में हेतु शब्द का प्रयोग भी मिलता है । ज्ञप्ति के साधनभूत होने से प्रत्यक्षादि को हेतु शब्द से व्यवहृत करने में औचित्यभंग भी नहीं है ।
प्रमाण- खण्ड
" श्रहवा हेऊ चउव्विहे पण्णत्त े, तंजहा पचचवखे श्रणुमाणे श्रवम्मे श्रागमे ।" स्थानांगसू० ३३८ ।
चरक में भी प्रमाणों का निर्देश हेतु शब्द से हुआ है
"अथ हेतुः - हेतुर्नाम उपलब्धिकारणं तत् प्रत्यक्षमनुमानमैतिह्य मौपम्यमिति । एभिर्हेतुभिर्यदुपलभ्यते तत् तत्त्वमिति ।" चरक० विमानस्थान प्र० ८ सू० ३३ ।
उपायहृदय में भी चार प्रमाणों को हेतु कहा गया है - पृ० १४ स्थानांग में ऐतिह्य के स्थान में आगम है, किन्तु चरक में ऐतिह्य को आगम ही कहा है अतएव दोनों में कोई अंतर नहीं - "ऐतिह्य नामाप्तोपदेशो वेदादिः " वही सू० ४१ ।
अन्यत्र जैननिक्षेप पद्धति के अनुसार प्रमाण के चार भेद भी दिखाए गए हैं ।
"चउविहे पमाणे पन्नत्तं तं जहा - दग्वप्पमाणे वेतप्पमाणे कालप्पमाणे भावप्पमाणे" स्थानांग सू० २५८ ।
प्रस्तुत सूत्र में प्रमाण शब्द का अतिविस्तृत अर्थ लेकर ही उसके चार भेदों का परिगणन किया गया है । स्पष्ट है कि इसमें दूसरे दार्शनिकों की तरह केवल प्रमेय साधक तीन, चार या छह आदि प्रमाणों का ही समावेश नहीं है, किन्तु व्याकरण कोपादि से सिद्ध प्रमाण शब्द के यावत् अर्थों का समावेश करने का प्रयत्न है । स्थानांग मूल सूत्र में उक्त भेदों की परिगणना के अलावा विशेष कुछ नहीं कहा गया है, किन्तु अन्यत्र उसका विस्तृत वर्णन है जिसके विषय में आगे हम कुछ कहेंगे ।
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