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आगम-युग का जन-दर्शन
जैन आगमिक आचार्य प्रमाणाप्रमाणचर्चा, जो दूसरे दार्शनिकों से चलती थी, उससे सर्वथा अनभिज्ञ तो थे ही नहीं किन्तु वे उस चर्चा को अपनी मौलिक और स्वतन्त्र ऐसी ज्ञानचर्चा से पृथक् ही रखते थे । जब आगमों में ज्ञान का वर्णन आता है, तब प्रमाणों या अप्रमाणों से उन ज्ञानों का क्या सम्बन्ध है उसे बताने का प्रयत्न नहीं किया है । और जब प्रमाणों की चर्चा आती है तब, किसी प्रमाण को ज्ञान कहते हुए भी आगम प्रसिद्ध पाँच ज्ञानों का समावेश और समन्वय उसमें किस प्रकार है, यह भी नहीं बताया है इससे फलित यही होता है कि आगमिकों ने जैनशास्त्रप्रसिद्ध ज्ञानचर्चा और दर्शनान्तर प्रसिद्ध प्रमाणचर्चा का समन्वय करने का प्रयत्न नहीं किया— दोनों चर्चा का पार्थक्य ही रखा । आगे के वक्तव्य से यह बात स्पष्ट हो जाएगी ।
जैन आगमों में प्रमाण - चर्चा :
प्रमाण के भेद – जैन आगमों में प्रमाणचर्चा ज्ञानचर्चा से स्वतन्त्र रूप से आती है । प्रायः यह देखा गया है कि आगमों में प्रमाणचर्चा के प्रसंग में नैयायिकादिसंमत चार प्रमाणों का उल्लेख आता है । कहीं-कहीं तीन प्रमाणों का भी उल्लेख है ।
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भगवती सूत्र ( ५.३.१६१ - १६२ ) में गौतम गणधर और भगवान् महावीर के संवाद में गौतम ने भगवान् से पूछा कि जैसे केवल ज्ञानी अंतकर या अंतिम शरीरी को जानते हैं, वैसे ही क्या छद्मस्थ भी जानते हैं ? इसके उत्तर में भगवान् ने कहा है कि
"गोयमा णो तिट्ठे समट्ठ े । सोच्चा जाणति पासति पमाणतो वा । सेकि तं सोच्चा ? केवलिस्स था केवलिसावयस्स वा केवलितावियाए वा केवलिउवासगस्स वा केवल वासियाए वा से तं सोच्चा । से कि तं पमाणं ? पमाणे चउव्विहे पण्णत्तेतं जहा पचचक्ले श्रणुमाणे प्रोवम्मे प्रागमे जहा अणुयोगद्दारे तहा णेयब्वं पमाणं" भगवती सूत्र ५.३.१९१–११२ ।
प्रस्तुत में स्पष्ट है, कि पांच ज्ञानों के आधार पर उत्तर न देकर दृष्टि से उत्तर दिया गया है । 'सोच्चा' पद से तो विकल्प से अन्य ज्ञानों को लेकर के उत्तर
मुख्य रूप से प्रमाण की श्रुतज्ञान को लिया जाए
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