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आगम-युग का जन-दर्शन
इन दो दृष्टियोंसे भगवान् महावीरका क्या अभिप्राय था ? यह भी भगवती के वर्णन से स्पष्ट हो जाता है । नारक जीवों की शाश्वतता और अशाश्वतता का प्रतिपादन करते हुए भगवान् ने कहा है कि अव्युच्छित्तिनयार्थता की अपेक्षा वह शाश्वत है, और व्युच्छित्तिनयार्थता की अपेक्षा से वह अशाश्वत है । इससे स्पष्ट है, कि वस्तु की नित्यता का प्रतिपादन द्रव्यदृष्टि करती है और अनित्यता का प्रतिपादन पर्याय दृष्टि । अर्थात् द्रव्य नित्य है और पर्याय अनित्य । इसी से यह भी फलित हो जाता है कि द्रव्यार्थिक दृष्टि अभेदगामी है और पर्यायार्थिक दृष्टि भेदगामी । क्योंकि नित्य में अभेद होता है और अनित्य में भेद । यह भी स्पष्ट हो जाता है कि द्रव्यदृष्टि एकत्वगामी है और पर्यायदृष्टि अनेकत्वगामी" क्योंकि नित्य एकरूप होता है और अनित्य वैसा नहीं । विच्छेद, कालकृत, देशकृत और वस्तुकृत होता है, और अविच्छेद भी । कालकृत विच्छिन्न को अनित्य, देशकृत विच्छिन्न को भिन्न और वस्तुकृत विच्छिन्न को अनेक कहा जाता है । काल से अविच्छिन्न को नित्य देश से अविच्छिन्न को अभिन्न और वस्तुकृत अविच्छिन्न को एक कहा जाता है । इस प्रकार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक का क्षेत्र इतना व्यापक है, कि उसमें सभी दृष्टियों का समावेश सहज रीति से हो जाता है" ।
भगवती सूत्र में पर्यायार्थिक के स्थान में भावार्थिक शब्द भी आता है" । जो सूचित करता है कि पर्याय और भाव एकार्थक हैं ।
द्रव्याथिक प्रदेशार्थिक :
जिस प्रकार वस्तु को द्रव्य और पर्याय दृष्टि से देखा जाता है, उसी प्रकार द्रव्य और प्रदेश की दृष्टि से भी देखा जा सकता है - ऐसा भगवान् महावीर का मन्तव्य है । पर्याय और प्रदेश में क्या अन्तर है ?
९६ भगवती ७.२.२७६ ॥
९७
भगवती १८.१० में श्रात्मा की एकानेकता को घटना बताई है । वहाँ
द्रव्य और पर्यायनय का श्राश्रयरण स्पष्ट है ।
९८ भगवती ७.२.२७३ ।
९९ भगवती १५८.१० । २५.३ । २५.४ ।
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