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________________ प्रमेय-खण्ड ११७ भावविशेष भव को पृथक् स्थान दिया है, यह स्पष्ट है । इसी प्रकार जब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव और संस्थान इन छह दृष्टियों से " तुल्यता का विचार किया है, तब वहाँ भी भावविशेष भव और संस्थान को स्वातन्त्र्य दिया गया है । अतएव वस्तुतः मध्यम मार्ग से चार दृष्टियाँ ही प्रधान रूप से भगवान् को अभिमत हैं, यह मानना उपयुक्त है । द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक : उक्त चार दृष्टियों का भी संक्षेप दो नयों में, आदेशों में या दृष्टियों में किया गया है । वे हैं - द्रव्यार्थिक" और पर्यायार्थिक अर्थात् भावार्थिक । वस्तुतः देखा जाए, तो काल और देश के भेद से द्रव्यों में विशेषताएँ अवश्य होती हैं। किसी भी विशेषता को काल या देश-क्षेत्र से मुक्त नहीं किया जा सकता । अन्य कारणों के साथ काल और देश भी अवश्य साधारण कारण होते हैं । अतएव काल और क्षेत्र, पर्यायों के कारण होने से, यदि पर्यायों में समाविष्ट कर लिए जाएँ तब तो मूलत: दो ही दृष्टियाँ रह जाती हैं- द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । अतएव आचार्य सिद्धसेन ने यह स्पष्ट बताया है कि भगवान महावीर के प्रवचन में वस्तुतः ये ही मूल दो दृष्टियाँ हैं, और शेष सभी दृष्टियाँ इन्हीं दो की शाखा प्रशाखाएँ हैं । ९५ जैन आगमों में सात मूल नयों की गणना की गई है। उन सातों के मूल में तो ये दो नय हैं ही, किन्तु 'जितने भी वचन मार्ग हो सकते हैं, उतने ही नय हैं, इस सिद्धसेन के कथन को सत्य मानकर यदि असंख्य नयों की कल्पना की जाए तब भी उन सभी नयों का समावेश इन्हीं दो नयों में हो जाता है यह इन दो दृष्टिओं की व्यापकता है । इन्हीं दो दृष्टियों के प्राधान्य से भगवान महावीर ने जो उपदेश दिया था उसका संकलन जैनागमों में मिलता है । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ९१ भगवतीसूत्र १४.७ : १२ भगवती ७,२.२७३ । १४.४.५१२ । १८.१० । ९३ सम्मति १.३ । ९४ अनुयोगद्वार सू० १५६ स्थानांग सू० ५५२ । ९५ सन्मति ३.४७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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