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________________ प्रमेय-खण्ड ११५ करके उनमें से कदाग्रह का विष निकालकर सभी का समन्वय करके अनेकान्तवादरूपी संजीवनी महौषधि का निर्माण किया है। कदाग्रह तब ही जा सकता है, जब प्रत्येक मत की सचाई की कसौटी की जाएं । मतों में सचाई जिस कारण से आती है, उस कारण की शोध करना और उस मत के समर्थन में उस कारण को बता देना, यही भगवान् महावीर के नयवाद, अपेक्षावाद या आदेशवाद का रहस्य है । अतएव जैन आगमों के आधार पर उन नयों का, उन आदेशों और उन अपेक्षाओं का संकलन करना आवश्यक है, जिनको लेकर भगवान् महावीर सभी तत्कालीन दर्शनों और पक्षों की सचाई तक पहुँच सके और जिनका आश्रय लेकर बाद के जैनाचार्यों ने अनेकान्तवाद के महाप्रासाद को नये नये दर्शन और पक्षों की भूमिका पर प्रतिष्ठित किया । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव : एक ही वस्तु के विषय में जो नाना मतों की सृष्टि होती है उसमें द्रष्टा की रुचि और शक्ति, दर्शन का साधन, दृश्य की दैशिक और कालिक स्थिति, द्रष्टा की दैशिक और कालिक स्थिति, दृश्य का स्थूल और सूक्ष्म रूप आदि अनेक कारण हैं । ये ही कारण प्रत्येक द्रष्टा और दृश्य में प्रत्येक क्षण में विशेषाधायक होकर नाना मतों के सर्जन में निमित्त बनते हैं। उन कारणों की व्यक्तिश: गणना करना कठिन है । अतएव तत्कृत विशेषों का परिगणन भी असंभव है। इसी कारण से वस्तुतः सूक्ष्म विशेषताओं के कारण होने वाले नाना मतों का परिगणन भी असंभव है। जब मतों का ही परिगणन असंभव हो, तो उन मतों के उत्थान की कारणभूत दृष्टि या अपेक्षा या नय की परिगणना तो सुतरां असंभव है। इस असंभव को ध्यान में रखकर ही भगवान् महावीर ने सभी प्रकार की अपेक्षाओं का साधारणीकरण करने का प्रयत्न किया है । और मध्यम मार्ग से सभी प्रकार की अपेक्षाओं का वर्गीकरण चार प्रकार में किया है। ये चार प्रकार ये हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । इन्हीं के आधार पर प्रत्येक वस्तु के भी चार प्रकार हो जाते हैं। अर्थात् द्रष्टा के पास चार दृष्टियाँ, अपेक्षाएँ, आदेश हैं, और वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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