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________________ ११४ आगम-युग का जैन-दर्शन ही रह जाते हैं। अतएव जो यह कहा जाता है, कि आगम में सप्तभंगी नहीं है, वह भ्रममूलक है । ८. सकलादेश-विकलादेश की कल्पना भी आगमिक सप्तभंगी में विद्यमान है । आगम के अनुसार प्रथम के तीन सकलादेशी भंग हैं, जबकि शेष विकलादेशी । बाद के दार्शनिकों में इस विषय को लेकर भी मतभेद हो गया है । ऐतिहासिक दृष्टि से गवेषणीय तो यह है, कि यह मतभेद क्यों और कब हुआ ? नय, आदेश या दृष्टियाँ : सप्तभंगी के विषय में इतना जान लेने के बाद अब भगवान् ने किन किन दृष्टियों के आधार पर विरोध परिहार करने का प्रयत्न किया, या एक ही धर्मी में विरोधी अनेक धर्मों का स्वीकार किया, यह जानना आवश्यक है। भगवान् महावीर ने यह देखा कि जितने भी मत, पक्ष या दर्शन हैं, वे अपना एक विशेष पक्ष स्थापित करते हैं और विपक्ष का निरास करते हैं । भगवान् ने उन सभी तत्कालीन दार्शनिकों की दृष्टियों को समझने का प्रयत्न किया। और उनको प्रतीत हुआ, कि नाना मनुष्यों के वस्तुदर्शन में जो भेद हो जाता है, उसका कारण केवल वस्तु की अनेकरूपता या अनेकान्तात्मकता ही नहीं, बल्कि नाना मनुष्यों के देखने के प्रकार की अनेकता या नानारूपता भी कारण है । इसीलिए उन्होंने सभी मतों को, दर्शनों को वस्तु रूप के दर्शन में योग्य स्थान दिया है। किसी मत विशेष का सर्वथा निरास नहीं किया है । निरास यदि किया है, तो इस अर्थ में कि जो एकान्त आग्रह का विष था, अपने ही पक्ष को, अपने ही मत या दर्शन को सत्य, और दूसरों के मत, दर्शन या पक्ष को मिथ्या मानने का जो कदाग्रह था उसका निरास कर के उन मतों को एक नया रूप दिया है। प्रत्येक मतवादी कदाग्रही होकर दूसरे के मत को मिथ्या बताते थे, वे समन्वय न कर सकने के कारण एकान्तवाद में ही फंसते थे। भगवान् महावीर ने उन्हीं के मतों को स्वीकार ६ प्रकलंकग्रन्थत्रय टिप्पणी पृ० १४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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