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प्रागम-युग का जैन-दर्शन
से । अतएव पंचप्रदेशिक स्कंध ( अनेक - २ ) आत्माएँ हैं, आत्मा नहीं है और अवक्तव्य ( अनेक - २ ) हैं ।
२२. ( अनेक २) देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायों से, ( अनेक २ ) देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायों से और देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायों से अतएव पंचप्रदेशिक स्कन्ध ( अनेक - २ ) आत्माएँ हैं, आत्माएँ ( अनेक२) नहीं हैं, और अवक्तव्य है ।
इसी प्रकार षट्प्रदेशिक स्कन्ध के २३ भंग होते हैं । उनमें से २२ तो पूर्ववत् ही हैं, किन्तु २३ वाँ यह है
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२३. ( अनेक - २) देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायों से, (अनेक-२ ) देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायों से और ( अनेक - २) देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से । अतएव षट् प्रदेशिक स्कन्ध ( अनेक ) आत्माएँ हैं, आत्माएँ नहीं हैं, और अवक्तव्य हैं ।
भगवती - १२.१०.४६६
इस सूत्र के अध्ययन से हम नीचे लिखे परिणामों पर पहुंचते हैं— १. विधिरूप और निषेधरूप इन्हीं दोनों विरोधी धर्मों का स्वीकार करने में ही स्याद्वाद के भंगों का उत्थान है ।
२. दो विरोधी धर्मों के आधार पर विवक्षा भेद से शेष भंगों की रचना होती है ।
३. मौलिक दो भंगों के लिए और शेष सभी भंगों के लिए अपेक्षाकारण अवश्य चाहिए । प्रत्येक भंग के लिए स्वतन्त्र दृष्टि या अपेक्षा का होना आवश्यक है । प्रत्येक भंग का स्वीकार क्यों किया जाता है, इस प्रश्न का स्पष्टीकरण जिससे हो वह अपेक्षा है, आदेश है या दृष्टि है या नय है । ऐसे आदेशों के विषय में भगवान् का मन्तव्य क्या था ? उसका विवेचन आगे किया जाएगा ।
८४ प्रस्तुत में अनेक का अर्थ यथायोग्य कर लेना चाहिए ।
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