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________________ प्रमेय-खण्ड ६६ १. आत्मारम्भ २. परारम्भ ३. तदुभयारम्भ ४. अनारम्भ भगवती १.१.१७ १. गुरु २. लघु ३. गुरु-लघु ४. अगुरुलघु भगवती १.६.७४ १. सत्य २. मृषा ३. सत्य-मृषा ४. असत्यमृषा भगवती १३.७.४६३ ४. १ आत्मांतकर २. परांतकर ३. आत्मपरांतकर ४. नोआत्मांतकर-परांतकर स्थानांगसूत्र-२८७,२८६,३२७,३४४,३५५,३६५ । इतनी चर्चा से यह स्पष्ट है, कि विधि, निषेध, उभय और अवक्तव्य (अनुभय) ये चार पक्ष भगवान् महावीर के समयपर्यन्त स्थिर हो चुके थे । इसी से भगवान् महावीर ने इन्हीं पक्षों का समन्वय किया होगा—ऐसी कल्पना होती है। उस अवस्था में स्याद्वाद के मौलिक भंग ये फलित होते हैं १. स्यात् सत् (विधि) २. स्याद् असत् (निषेध) ३. स्याद् सत् स्यादसत् (उभय) ४. स्यादवक्तव्य (अनुभय) अवक्तव्य का स्थान : इन चार भंगों में से जो अंतिम भंग अवक्तव्य है, वह दो प्रकार से लब्ध हो सकता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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