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श्रागम-युग का जैन दर्शन
नहीं ? या जिसको कषायात्मा हैं, उसको द्रव्यात्मा आदि हैं या नहीं । उत्तर- द्रव्यात्मा के होने पर यथायोग्य कपायात्मा आदि होते भी हैं और नहीं भी होते, किन्तु कषायात्मा आदि के होने पर द्रव्यात्मा अवश्य होती है । इसलिए यही मानना पड़ता है कि उक्त चर्चा द्रव्य और पर्याय के भेद को ही सूचित करती है ।
प्रस्तुत द्रव्य पर्याय के भेदाभेद का अनेकान्तवाद भी भगवान् महावीर ने स्पष्ट किया है, यह अन्यत्र आगम-वाक्यों से भी स्पष्ट हो जाता है ।
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जीव और अजीव की एकानेकता :
एक ही वस्तु में एकता और अनेकता का समन्वय भी भगवान् महावीर के उपदेश से फलित होता है । सोमिल ब्राह्मण ने भगवान् महावीर से उनकी एकता - अनेकता का प्रश्न किया था । उस का जो उत्तर भगवान् महावीर ने दिया है, उससे इस विषय में उन की अनेकान्तवादिता स्पष्ट हो जाती है
"सोमिला दव्वट्ट्याए ऐगे अहं, नाणदंसणट्ट्ट्याए दुबिहे अहं, पएस ट्ठयाए अक्लए वि अहं, अध्यए कि अहं, अवट्टिए वि श्रहं उवयोगट्ट्याए प्रणेगभूयभावभविए वि श्रहं ।" भगवती १.५.१०
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अर्थात् सोमिल, द्रव्यदृष्टि से मैं एक हूँ । ज्ञान और दर्शन रूप दो पर्यायों के प्राधान्य से मैं दो हूँ । कभी न्यूनाधिक नहीं होने वाले प्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ एवं अवस्थित हूँ । तीनों काल में बदलते रहने वाले उपयोग स्वभाव की दृष्टि से मैं अनेक हूँ ।
इसी प्रकार अजीव द्रव्यों में भी एकता - अनेकता के अनेकान्त को भगवान ने स्वीकार किया है। इस बात की प्रतीति प्रज्ञापना के अल्पबहुत्व पद से होती है, जहाँ कि छहों द्रव्यों में पारस्परिक न्यूनता, तुल्यता और अधिकता का विचार किया है । उस प्रसंग में निम्न वाक्य आया है"गोयमा, सव्वत्थोवे एगे धम्मत्थिकाए बब्बट्टयाए, से चेव पएस ट्ठयाए श्रसंखेज्जगुणे ।...... सव्वत्थोवे पोग्गलत्थिकाए कवट्टयाए, से चेद पएस ट्टयाए असं खेज्जगुणे ।"
प्रज्ञापनापव- - ३. सू० ५६ ।
७२ भगवती १६.१.
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