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________________ प्रमेय - खण्ड है, अतएव उस दृष्टि से भी दोनों में कोई विशेषता नहीं । एक नारक का शरीर दूसरे नारक से छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी हो सकता है, और समान भी हो सकता है । यदि शरीर में असमानता हो, तो उसके प्रकार असंख्यात हो सकते हैं, क्यों कि अवगाहना सर्व जघन्य हो तो अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण होगी । क्रमशः एक-एक भाग की वृद्धि से उत्कृष्ट ५०० धनुष प्रमाण तक पहुँचती है। उतने में असंख्यात प्रकार होंगे । इसलिए अवगाहना की दृष्टि से नारक के असंख्यात प्रकार हो सकते हैं । यही बात आयु के विषय में भी कही जा सकती है । किन्तु नारक के जो अनन्त पर्याय कहे जाते हैं, उस का कारण तो दूसरा ही है । वर्ण, गंध, रस, स्पर्श ये वस्तुतः पुद्गल के गुण हैं किन्तु संसारी अवस्था में शरीररूप पुद्गल का आत्मा से अभेद माना जाता है । अतएव यदि वर्णादि को भी नारक के पर्याय मानकर सोचा जाए, तथा मतिज्ञानादि जो कि आत्मा के गुण हैं, उनकी दृष्टि से सोचा जाए तब नारक के अनन्तपर्याय सिद्ध होते हैं । इसका कारण यह है कि किसी भी गुण के अनन्त भेद माने गए हैं। जैसे कोई एक गुण श्याम हो दूसरा द्विगुण श्याम हो, तीसरा त्रिगुण श्याम हो, यावत् अनन्तवाँ अनन्त गुणश्याम हो । इसी प्रकार शेष वर्ण और गंधादि के विषय में भी घटाया जा सकता है । इसी प्रकार आत्मा के ज्ञानादि गुण की तरतमता की मात्राओं का विचार कर के भी अनन्तप्रकारता की उपपत्ति की जाती है । अब प्रश्न यह है कि नारक जीव तो असंख्यात ही हैं, तब उनमें वर्णादि को लेकर एककाल में अनन्त प्रकार कैसे घटाए जाएँ। इसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए कालभेद को बीच में लाना पड़ता है । अर्थात् काल भेद से नारकों में ये अनन्त प्रकार घट सकते हैं । कालभेद ही तो ऊर्ध्वता - सामान्याश्रित पर्यायों के विचार में मुख्य आधार है । एक जीव कालभेद से जिन नाना पर्यायों को धारण करता है, उन्हें ऊर्ध्वतासामान्याश्रित पर्याय समझना चाहिए । जीव और अजीव के जो ऊर्ध्वता - सामान्याश्रित पर्याय होते हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only ८१ www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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