SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८० प्रागम-युग का जैन-दर्शन किन्तु जीवविशेषों में अर्थात् नारक, देव, मनुष्य, तिर्यंच और सिद्धों में जब . पर्याय का विचार होता है, तब विचार का आधार बिलकुल बदल जाता है। यदि उन विशेषों की असंख्यात या अनन्त संख्या के अनुसार उनके असंख्यात या अनन्त पर्याय कहे जाएँ तो यह तिर्यग्सामान्य की दृष्टि से पर्यायों का कथन समझना चाहिए परंतु भगवान् ने उन जीवविशेषों के पर्याय के प्रश्न में सर्वत्र अनन्त पर्याय ही बताए हैं।" नारक जीव व्यक्तिशः असंख्यात ही हैं, अनन्त नहीं, तो फिर उनके अनन्त पर्याय कैसे ? नारकादि सभी जीवविशेषों के अनन्त पर्याय ही भगवान् ने बताए हैं । तो इस पर से यह समझना चाहिए कि प्रस्तुत प्रसंग में पर्यायों की गिनती का आधार बदल गया है । जीवसामान्य के अनन्नपर्यायों का कथन तिर्यग्सामान्य के पर्याय की दृष्टि से किया गया है, जब कि जीवविशेष नारकादि के अनन्त पर्याय का कथन ऊर्ध्वतासामान्य को लेकर किया गया है, यह मानना पड़ता है । किसी एक नारक के अनन्तपर्याय घटित हो सकते हैं, इस बात का स्पष्टीकरण यों किया गया है एक नारक दूसरे नारक से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य, है, अवगाहना की अपेक्षा से स्यात् चतु:स्थान से हीन, स्यात् रतुल्य, स्यात् चतु:स्थान से अधिक है; स्थिति की अपेक्षा से अवगाहना के समान है, किन्तु श्याम वर्ण पर्याय की अपेक्षा से स्यात् षट्स्थानसे हीन, स्यात् तुल्य, स्यात् षट्स्थान से अधिक है। इसी प्रकार शेष वर्णपर्याय, दोनों गंध पर्याय, पांचों रस पर्याय, आठों स्पर्श पर्याय, मतिज्ञान और अज्ञान पर्याय, श्रुतज्ञान और अज्ञानपर्याय, अवधि और विभंगपर्याय, चक्षुर्दर्शनपर्याय, अचक्षुर्दर्शनपर्याय, अवधिदर्शनपर्याय-इन सभी पर्यायों की अपेक्षा से स्यात् षट्स्थान पतित हीन है, स्यात् तुल्य है, स्यात् पटस्थान पतित अधिक है। इसीलिए नारक के अनन्त पर्याय कहे जाते हैं ।'' प्रज्ञापना पद ५ । ___ कहने का तात्पर्य यह है कि एक नारक जीव द्रव्य की दृष्टि से दूसरे के समान है। दोनों के आत्म प्रदेश भी असंख्यात होने से समान ६९ प्रज्ञापना-पद ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy