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________________ १२० सिरिवीरभद्दायरियविरइया 1344. संलेहणं सुणित्ता जुत्तायारेहिं निज्जविज्जंते । सव्वेहिवि गंतव्वं जईहिं इयरत्थ भणिज्जं ॥ ४१२ ॥ 1345. संलेहगस्स मूलं जो वच्चइ तिव्वभत्तिरायणं । भोतूण दिव्वसोक्खं सो पावइ उत्तिमं ठाणं ॥ ४१३ ॥ 1346 तिल - कसायाईहि य बहुसो गंडूसया पघित्तव्वा । जिब्भा - कण्णाण बलं होही वयणं च से विसयं ॥ ४१४ ॥ निज्जवया ५ ॥ [गा. ४१५ - १६. ममत्त वुच्छेयदारस्स छ दंसणपडिदारं ] 1347 सव्वाहारमदंसिय जदि कीरइ तस्स तिविहवोसिरणं । कम्म विभत्तविसेसम्म उस्सुओ हुज्ज सो खवओ ॥ ४१५ ॥ 1348 तम्हा भवचरिमं सो पच्चक्खाहि त्ति तिविहमाहारं । उक्कस्सियाणि सव्वाणि तस्स दव्वाणि दंसिज्जा ॥ ४१६ ॥ दंसणं ६ ॥ [गा. ४१७ - २२. ममत्तवुच्छेयदारस्स सत्तमं हाणिपडिदारं ] 1349. पासित्तु कोई ताई 'तीरं पत्तस्सिमेहिं किं मज्झ १ ' । वेरग्गमणुप्पत्तो संवेगपरो स चिंतेइ ॥ ४१७ ॥ 1350 किं व तं नोवभुतं मे परिणामासुई सुई ? । दिवसारो सुहं झाइ, चोयणा अवसीयओ ॥ ४१८ ॥ 1351. देसं भुच्चा कोई हाहा ! इण्हि इमेहिं किं मज्झ ? । कोई तमायइत्ता रसगिद्धो कुणइ अणुबंधं ॥ ४१९॥ 1352. तत्तो तस्स अवाए दंसेइ य तस्स सुहुमसलस्स । तो सो अणत्थभीओ संविग्गो चयइ रसगेहिं ॥ ४२० ॥ 1353. अणुसज्ज माणए पुण समाहिकामस्स सव्वमवहरिय | • इक्विकं भाविंतो ठवेइ पोराणयाहारे ॥ ४२१ ॥ 1354. अणुपुव्वेण ठवेइ य संवट्टेऊण सव्वमाहारं । Jain Education International पाणयपरिकम्मेण य पच्छा भावेइ अप्पाणं ॥ ४२२ ॥ हाणी ७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001045
Book TitlePainnay suttai Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Amrutlal Bhojak
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1987
Total Pages427
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_anykaalin, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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