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________________ एक अनुशीलन औपपातिक ६ में पांचवीं कला 'गीत' है, पच्चीसवीं कला 'गीति' और छप्पनवीं कला 'दृष्टियुद्ध' नहीं है। इनके स्थान पर औपपातिक में (३६) चक्कलक्वणं, (३८) चम्मलक्खणं तथा (४६) वत्थुनिवेसन कलाओं का उल्लेख है। रायसेणिय सूत्र में उन्तीसवीं कला 'चूर्णयुक्ति' नहीं है, (३८) वीं कला 'चक्रलक्षण' विशेष है। छप्पनवीं कला 'दृष्टियुद्ध' के स्थान पर 'यष्टियुद्ध' है। अन्य सभी कलाएँ ज्ञाताधर्म के अनुसार ही हैं। जम्बूद्वीपति शांतिचन्द्रीयवृत्ति, वक्षस्कार-२ पत्र संख्या १३६-२, १३७-१ में सभी कलाएँ ज्ञातासूत्र की-सी ही हैं, किन्तु संख्या के क्रम में किंचित् अन्तर है। ज्ञातासूत्र में आयी हुई बहत्तर कलाओं के नामों में और समवायांग में आई हुई बहत्तर कलाओं के नामों में बहुत अन्तर है। समवायांग की कलासूची यहाँ प्रस्तुत है-- (१) लेह-लेख लिखने की कला (२) गणियं-गणित (३) रूवं - रूप सजाने की कला (४) नर्से-नाट्य करने की कला (५) गीयं-गीत गाने की कला (६) वाइयं-वाद्य बजाने की कला (७) सरगयं-स्वर जानने की कला (८) पुक्खरय-ढोल आदि वाद्य बजाने की कला (९) समतालं-ताल देना (१०) जूयं-जुआ खेलने की कला (११) जणवायं-वार्तालाप की कला (१२) पोक्खच्चं-नगर-संरक्षण की कला (१३) अट्ठावय- पासा खेलने की कला (१४) दगमट्टियं-पानी और मिट्टी के संमिश्रण से वस्तु बनाने की कला (१५) अन्नविहि-अन्न उत्पन्न करने की कला (१६) पाणविहि-पानी को उत्पन्न करने तथा शुद्ध करने की कला (१७) वत्थविहिं—वस्त्र बनाने की कला (१८) सयणविहि-शय्या निर्माण करने की कला (१९) अजं-संस्कृत भाषा में कविता निर्माण की कला (२०) पहेलियं-प्रहेलिका निर्माण की कला (२१) मागहियं-छन्द विशेष बनाने की कला ९६. औपपातिक ४० पत्र १८५॥ ९७. राजप्रश्नीय सूत्र पत्र ३४० ॥ ९८. समवायांग, समवाय-७२॥ ९९. ज्ञातासूत्र-१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001021
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Dharmachandvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1990
Total Pages737
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Story, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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