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________________ एक अनुशीलन कथासाहित्य में बौद्ध जातकों में और वैदिक परम्परा के ग्रंथों में दोहद का अनेक स्थलों पर वर्णन है। यह ज्ञातव्य है कि जब महेला गर्भवती होती हैं तब गर्भ के प्रभाव से उस के अन्तर्मानस में विविध प्रकार की इच्छाएँ उबुद्ध होती हैं। वे विचित्र और असामान्य इच्छाएँ ' दोहद', 'दोहला ' कही जाती हैं । दोहद के लिए संस्कृत साहित्य में 'द्विहृद' भी आया है। 'द्विहृद' का अर्थ है दो हृदय को धारण करनेवाली । गर्भावस्था में मां की इच्छाओं पर गर्भस्थ शिशु का मी प्रभाव होता है। यद्यपि शिशु की इच्छाएँ जिस रूप में चाहिए उस रूप में व्यक्त नहीं होती, किन्तु उसका प्रभाव मां की इच्छाओं पर अवश्य ही होता है। ८४ दोहद के समय महिला की स्थिति विचित्र बन जाती है । उस समय उसकी भावनाएँ इतनी तीव्र होती हैं कि यदि उसकी भावनाओं की पूर्ति न की जाय तो वह रुग्ण हो जाती है। कई बार तो दोहद की पूर्ति के अभाव में महिलाएँ अपने प्राणों का त्याग भी कर देती हैं। सुश्रुत भारतीय आयुर्वेद का एक शीर्षस्थ ग्रंथ है। उसमें लिखा है - दोहद के पूर्ण न होने पर जो सन्तान उत्पन्न होती है उसका अवयव विकृत होता है। या तो वह कुबड़ा होगा, लुंज-पुंज, जड़, बौना, बाड़ा, या अंधा होगा, अष्टावक्र की तरह कुरूप होगा। किन्तु दोहद पूर्ण होने पर सन्तान सर्वागसुन्दर होती है । * आचार्य हेमचन्द्र के समय तक दोहला माता की मनोरथ पूर्ति के अर्थ में प्रचलित था । राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और दक्षिण भारत के कर्नाटक, आन्ध्र और तमिलनाडु में सातवें माह में साते, सांधे और सीमन्त के रूप में समारंभ मनाया जाता है। सात महीने में गर्भस्थ शिशु प्रायः शारीरिक पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। ऐसा भी माना जाता है कि यदि सात मास में बालक का जन्म हो जाता है और वह जीवित रहता है तो महान् यशस्वी होता है। वासुदेव श्रीकृष्ण को सातवें माह में उत्पन्न हुआ माना जाता है। सुश्रुत आदि में चार माह में दोहद पूर्ति का समय बताया है। ज्ञातधर्मकथा, कथा-कोश - और कहाकोसू" आदि ग्रंथों में ऐसे प्रसंग मिलते हैं कि तीसरे, पाँचवें और सातवें माह में दोहद की पूर्ति की गई। क्योंकि उसी समय उसको दोहद उत्पन्न हुए थे । आधुनिक शरीर-शास्त्रियों का भी यह अभिमत है कि अवयवनिर्माण की प्रक्रिया तृतीय मास में पूर्ण हो जाती है, उसके पश्चात् भ्रूण के आवश्यक अंग-प्रत्यंग में पूर्णता आती रहती है । । अंगवि जैन साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। उस ग्रंथ में विविध दृष्टियों से दोहदों के संबंध में गहराई से चिन्तन किया है। जितने भी दोहद उत्पन्न होते हैं उन्हें पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है— शब्दगत, गंधगत, रूपगत, रसगत और स्पर्शगत । क्योंकि ये ही मुख्य इन्द्रियों के विषय हैं और इन्हीं की दोहदों में पूर्ति की जाती है। प्राचीन साहित्य में जितने भी दोहद आये हैं उन सभी का समावेश इन पाँचों में हो जाता है। वैदिक वाङ्मय में, बौद्ध जातक साहित्य में और जैन कथा साहित्य में दोहद उत्पत्ति और उसकी पूर्ति के अनेक प्रसंग मिलते हैं। चरक आदि में भी इस पर विस्तार से चर्चा है। ८४. ८२. सिसुमार जातक एवं वानर जातक; सुपत्त जातकः थूस जातक, छवक जातक, निदानकथा ॥ ८३. रघुवंश - स० १४; कथासरित्सागर अ० २२; ३५, तिलकमंजरी पृ. ७५; वेणीसंहार । दौहृद विमानात् कुजं कुणिं खञ्जं जडं वामनं विकृताक्षमनक्षं वा नारी सुतं जनयति । तस्मात् सा यद्यदिच्छेत् तत्तस्य दापयेत् । लब्धदौहदा हि वीर्यवन्तं चिरायुषञ्च पुत्रं जनयति । -- सुश्रुतसंहिता, अ. ३, शरीरस्थानम् - १४ ॥ ८५. ज्ञातधर्म कथा - १, पृ० १० ॥ ८६. कथाकोश पृ० १४ ॥ ८७. कहाको सुसं. ४९ ॥ ८८. अंगविद्या अध्याय ३६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001021
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Dharmachandvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1990
Total Pages737
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Story, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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