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वियाहपण्णत्तिसुत्तं
[स०९ उ०३३ बहुजणसद्दे इ वा जंहा उववाइए जाव एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ–एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे आइगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी माहणकुंडग्गामस्स नगरस्स बहिया बहुसालए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ । तं महप्फलं खलु देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं जहा उववाइए जाव एगाभिमुहे खत्तियकुंडग्गामं नगरं मझमज्झेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे नगरे जेणेव बहुसालए चेइए एवं जहा उववाइए जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति ।
२४. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स तं महया जणसदं वा जाव जणसन्निवायं वा सुणमाणस्स वा पासमाणस्स वा अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था--किं णं अज्ज खत्तियकुंडग्गामे नगरे इंदमहे इ वा, खंदमहे इ वा, मुगुंदमहे इ वा, नागमहे इ वा, जक्खमहे इ वा, भूयमहे इ वा, कूवमहे इ वा, तडागमहे इ वा, नइमहे इ वा, दहमहे इ वा, पव्वयमहे इ वा, रुक्खमहे इ वा, चेइयमहे इ वा, थूममहे इ वा, जं णं एए बहवे उग्गा भोगा राइन्ना इक्खागा णाया कोरव्वा खत्तिया खत्तियपुत्ता भडा भडपुत्ता सेणावइ २२
१. “जहा उववाइए त्ति तत्र चेदं सूत्रमेवं लेशतः-जणवूहे इ वा जणबोले इ वा जणकलकले ति वा जणुम्मी इ वा जणुक्कलिया इ वा जणसन्निवाए इ वा बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ त्ति" अवृ० । अस्यार्थः वृत्तौ वृत्तिकारेण निरूपितः । औपपातिकसूत्रे एतद् वर्णनं ५७ तमपत्रस्य प्रथमपृष्ठेऽस्ति आगमो० आवृत्तौ॥ २. 'इह यावत्करणादिदं दृश्यम-उग्गहं ओगिण्हति, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे त्ति' अवृ०॥ ३. “जहा उववाइए त्ति तदेव लेशतो दर्यते-नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण-वंदण-णमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए ?, एगस्स वि आयरियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमंसामो सक्कारेमो सम्माणेमो, एथं णे पेच्चभवे हियाए सुहाए खमाए णिस्सेअसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ त्ति कटु बहवे उग्गा उग्गपुत्ता एवं भोगा राइन्ना खत्तिया भडा अप्पेगइया बंदणवत्तिय एवं पूअणवत्तियं सक्कारवत्तियं सम्माणवत्तियं कोउहलवत्तियं, अप्पेगइया 'जीयमेयंति कटु व्हाया कयबलिकम्मा० इत्यादि" अवृ०। एष सन्दर्भ औपपातिकसूत्रे प० ५७-५९ पर्यन्तं सविस्तरो दृश्यते, आगमो० ॥ ४. “एवं जहा उववाइए त्ति, तत्र चैतदेवं सूत्रम्-तेणामेव उवागच्छंति, तेणामेव उवागच्छित्ता छत्ताइए तित्थयराइसए पासंति, जाण-वाहणाई ठाइंति इत्यादि" अवृ०। दृश्यतां औपपातिकसूत्रस्य ७५-७६ पत्रगतं सूत्रं ३२, आगमो० आवृत्तिः॥ ५. वा इमेया ला १॥ ६. 'यावत्करणादिदं दृश्यम्-चिंतिए...पत्थिए...मणोगए...संकप्पे' अवृ०॥ ७. अत्र '२' इत्यनेनाङ्केन 'पुत्ता' इति संयोज्य तत् तत् पदं ज्ञेयम् , यथा 'सेणावइपुत्ता' इत्यादि ।
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