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एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय) मधुवन्नवनीतं च मुञ्चेत्तत्रापि भूरिशः।
द्विमुहूर्तात्परं शश्वत् संसजन्त्यङ्गिराशयः ॥१२॥ तत्रापि-न केवलं मधुनि, किं तर्हि, नवनीतेऽपीत्यर्थः । संसजन्ति-सम्मूर्च्छन्ति । यदाह
'यन्मुहूर्तयुगतः परं सदा मूर्छति प्रचुरजीवराशिभिः ।
तद्गिलन्ति नवनीतमत्र ये ते व्रजन्ति खलु कां गतिं मृताः ॥ [ अमि. श्रा. ५।३६ ] ६ अन्ये त्वन्तर्मुहूर्तादूध्वं नवनीते जन्तुसंमूर्छनमिच्छन्ति । यदाह
'अन्तर्मुहूर्तात्परतः सुसूक्ष्मा जन्तुराशयः ।
यत्र मूर्च्छन्ति नाद्यं तन्नवनीतं विवेकिभिः ॥' मधुनि त्वयं विशेषो यन्नित्यं जीवमयत्वम् । तदाह
'स्वयमेव विगलितं यद्गृहीतमथवा वेलेन निजगोलात्।
तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात् ।।' [ पुरुषार्थ. ७० ] ॥१२॥ अथ पञ्चोदुम्बरफलभक्षणे द्रव्यभावहिंसादोषमुपपादयति
पिप्पलोदुम्बर-प्लक्ष-वट-फल्गु-फलान्यदन् ।
हन्त्यार्द्राणि प्रसान् शुष्काण्यपि स्वं रागयोगतः ॥१३॥ धार्मिक पुरुषको मधुकी तरह मक्खनको भी छोड़ना चाहिए; क्योंकि मक्खनमें भी दो मुहूर्त के बाद निरन्तर बहुत-से जीवसमूह उत्पन्न होते रहते हैं ॥१२॥
विशेषार्थ-आचार्य हरिभद्रने कहा है कि मद्य-मांस-मधुमें और मक्खनमें उसी रंगके असंख्यात जीव उत्पन्न होते हैं । यही बात अमृतचन्द्रजीने भी कही है कि मधु, मद्य, नवनीत और मांस ये चार महाविकृतियाँ हैं । व्रती इन्हें नहीं खाते हैं क्योंकि उनमें उसी वर्णके जीव पाये जाते हैं। आचार्य अमितगतिने भी मक्खनमें निरन्तर जीवोंकी उत्पत्ति बतलाते हुए कहा है कि जो ऐसे मक्खनको खाते हैं उनमें संयमका अंश भी नहीं है फिर धर्ममें तत्परता कैसे हो सकती है । उन्होंने भी चारोंको ही ज्याज्य बतलाया है ॥१२॥
आगे पाँच उदुम्बर फलोंके खाने में द्रव्यहिंसा और भावहिंसाका दोष बतलाते हैं
पीपल, उदुम्बर, पिलखन, बड़ और कठूमरके गीले फलोंको खानेवाला त्रसजीवोंको मारता है। और सूखे फलोंको भी खानेवाला रागके सम्बन्धसे अपने आत्माका घात करता है ॥१३॥ १. 'छलेन मधुगोलात् ।'-पुरु.। २. 'मज्जे महम्मि मंसंमी नवणीयंमि चउत्थए । उप्पज्जति असंखा तव्वण्णा तत्थ जंतूणो' ।
-सम्बोध प्र. ६१७६ ३. मधु मद्यं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः ।
वल्भ्यन्ते न वतिना तद्वर्णा जन्तवस्तत्र ॥-पुरुषार्थ., ७१ श्लो. । ४. 'चित्रजीवगणसूदनास्पदं विलोक्य नवनीतमद्यते ।
तेष संयमलवो न विद्यते धर्मसाधनपरायणा कुतः।-अमित श्रा. ५।३४-३८ ।
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