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________________ धर्मामृत ( सागार ) 'स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैविना ॥ नाङ्गहीनमलं छेत्तुं दर्शनं जन्मसंततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥' [ रत्न. श्रा. २१, २६ श्लो. ] अपि च 'आप्तागमपदार्थानां श्रद्धानं कारणद्वयात् । मूढाद्यपोढमष्टाङ्गं सम्यक्त्वं प्रशमादिभाक् ॥' [ सो. उपा., ४८ श्लो.] अणु-गुण-शिक्षावतानि-अणुगुणशिक्षापूर्वाणि व्रतानीति विग्रहः । मरणान्ते-मृत्यावासन्ने . सति । सल्लेखना-कायकषायकृशीकरणलक्षणा श्रावकधर्मप्रासादकलशारोहणभूता। पूर्णः ब्रह्म पदाचाराणां सल्लेखनापरिकर्मतया तत्रैवान्तर्भावात् ॥१२॥ अथासंयमिनोऽपि सम्यग्दशः कर्मक्लेशापकर्षमाचष्टे भूरेखादिसक्कषायवशगो यो विश्वदृश्वाज्ञया ___ हेयं वैषयिकं सुखं निजमुपादेयं त्विति श्रद्दधत् । चौरो मारयितुं धृतस्तलवरेणेवाऽऽत्मनिन्दादिमान् शर्माक्षं भजते रुजत्यपि परं नोत्तप्यते सोऽप्यधैः ॥१३॥ भूरेखादिसदृशः-दृषदवनीत्यादिसूत्रोक्तलक्षणा अप्रत्याख्यानावरणादयो द्वादश क्रोधादिविकल्पाः । विश्वदृश्वाज्ञया-'नान्यथावादिनो जिनाः' इति कृत्वा इत्यर्थः । निज-आत्मोत्थं नित्यं वा । 'नित्यं स्वं ___ उपबृंहण गुणके लिए मार्दव आदि भावनाओंके द्वारा सदा आत्मामें धर्मकी वृद्धि करना चाहिए तथा परदोषोंको ढाँकना चाहिए। यह पाँचवाँ उपगूहन या उपबृंहण अंग है। न्याय मार्गसे विचलित करनेके लिए काम क्रोध मान आदि उत्पन्न होनेपर युक्तिसे अपना और दूसरोंका स्थितिकरण करना चाहिए। यह छठा अंग है। निरन्तर अहिंसामें, मोक्ष सुखके कारण धर्ममें तथा सब साधर्मियोंमें उत्कृष्ट वात्सल्य रखना चाहिए। यह सातवाँ अंग है। सदा रत्नत्रयको ज्योतिसे आत्माको प्रभावित करना चाहिए। तथा दान, तप, जिनपूजा और ज्ञानातिशयके द्वारा जिनधर्मकी प्रभावना करनी चाहिए। अंगहीन सम्यग्दर्शन जन्मपरम्पराका छेदन करने में समर्थ नहीं होता; क्योंकि अक्षरोंसे हीन मन्त्र विषकी वेदनाको दूर नहीं कर सकता। ___ आचार्य सोमदेवने कहा है-अन्तरंग बहिरंग कारणोंसे आप्त आगम और पदार्थोंका मूढ़ता आदिसे रहित और आठ अंग सहित श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। प्रशम आदि उसके गुण हैं ॥१२॥ इस प्रकार यह सम्यक्त्वका स्वरूप कहा है। आगे कहते हैं कि असंयमी सम्यग्दृष्टिके भी कर्मजन्य क्लेशों में कमी होती है जो सर्वज्ञकी आज्ञासे वैषयिक सुख छोड़ने योग्य है और आत्मिक सुख उपादेय है, इस प्रकारका श्रद्धान रखते हुए भी पृथ्वी आदि की रेखाके समान अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषायोंके अधीन होकर इन्द्रियोंसे होनेवाले सुखको भोगता है और स्थावर तथा जंगम प्राणियोंको पीड़ा भी पहुँचाता है, किन्तु कोतवालके द्वारा मारनेके लिए पकड़े गये चोरके समान अपनी निन्दा गर्दा करता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि भी पापसे उत्कृष्ट क्लेशको राप्त नहीं होता ॥१३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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