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दशम अध्याय (प्रथम अध्याय) 'सकलमनेकान्तात्मकमिदमुक्तं वस्तुजातमखिलज्ञैः । कि सत्यमसत्यं वा न जातु शङ्केति कर्तव्या । इह जन्मनि विभवादीनमुत्र चक्रित्वकेशवत्वादीन् । एकान्तवाददूषितपरसमयानपि च नाकाक्षेत् ॥ क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु । द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा नैव करणीया ॥ लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे। नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ॥ धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया । परदोषनिगृहनमपि विधेयमुपबृहणगुणार्थम् ।। कामक्रोधमदादिषु चलयितुमुदितेषु वमनो न्यायात् । श्रुतमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ।। अनवरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने धर्मे । सर्वेष्वपि च सर्मिषु परमं वात्सल्यमवलम्ब्यम् ।। आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव।
दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयश्च जिनधर्मः॥ [पुरुषार्थ., २३-३० श्लो.] आचार्य अमृतचन्द्रने कहा है 'जीव अजीव आदि तत्त्वार्थोंका सदा ही विपरीत अभिप्राय रहित श्रद्धान करना चाहिए । वह श्रद्धान आत्माका स्वरूप है।' जीव अजीव आदि तत्त्वोंका उपदेश संक्षेपमें इस प्रकार है-जीव उपादेय है अजीव हेय है। जीवमें हेय अजीवको लानेमें कारण होनेसे आस्रव तत्त्व कहा है। हेय अजीवके उपादान रूपसे बन्ध कहा है और हेयकी हानिमें हेतु होनेसे संवर और निर्जरा कहा है। तथा समस्त हेयके छूट जानेसे मोक्ष कहा है।
आचार्य समन्तभद्रने सच्चे देव, शास्त्र, गुरुके तीन मूढ़ता और आठ मद रहित तथा आठ अंग सहित श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है। जो दोषोंसे रहित सर्वज्ञ और आगमका उपदेष्टा होता है वही आप्त है, अन्य आप्त नहीं है। तथा जो आप्तके द्वारा कहा गया है, जिसका कथन प्रत्यक्ष और अनुमानके अविरुद्ध है, तत्त्वोंका उपदेशक है, सबका हितकारी है
और कुमार्गका नाशक है वही सच्चा शास्त्र है। जो विषयोंकी चाहसे रहित है, आरम्भ और परिग्रहसे रहित है तथा ज्ञान ध्यानमें लीन रहता है वही तपस्वी प्रशंसनीय (सच्चा गुरु) है।
सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिकी विधि इस प्रकार है-सर्वज्ञ देवने समस्त वस्तुमात्रको अनेकान्तात्मक कहा है । यह सत्य है या असत्य है, ऐसी शंका कभी भी नहीं करनी चाहिए। यह सम्यग्दर्शनका प्रथम निःशंकित अंग है।
___ इस जन्म में वैभव आदिकी और परजन्ममें चक्री केशव आदि पदोंकी अभिलाषा नहीं करनी चाहिए। तथा एकान्तवादसे दूषित अन्य धर्मोंकी भी इच्छा नहीं करनी चाहिए। यह दूसरा निःकांक्षित अंग है। भूख प्यास, शीत उष्ण आदि नाना प्रकारके भावोंमें और मल आदि द्रव्योंमें ग्लानि भाव नहीं करना चाहिए। यह तीसरा निर्विचिकित्सा अंग है। तत्त्वरुचि सम्यग्दृष्टिको लोकमें, शास्त्राभासमें, मिथ्यादर्शनोंमें, मिथ्या देवताओंमें सदा अमूढ़ बुद्धि होना चाहिए। यह चतुर्थ अमूढ़ दृष्टि अंग है।
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