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________________ दशम अध्याय (प्रथम अध्याय) 'प्राज्ञः' एतेन बलाबलज्ञत्वं दीर्घदर्शित्वं विशेषज्ञता चोक्ता स्यात् । तथाहि-बलं स्वपरयोर्द्रव्यक्षेत्रकालभावकृतं सामर्थ्यमबलमपि तथैव । तत् ज्ञाने हि सर्वोऽप्यारम्भः फलवानन्यथा तु विफलम् । यदाह 'स्थाने श्रमवतां शक्त्या व्याया अयथाबलमारम्भो निदानं क्षयसंपदः॥ [ ] तच्च प्रज्ञव। तथा दीर्घकालभावित्वाद्दीर्घमर्थमनर्थ च पश्यति पर्यालोचयतीत्येवंशीलो दीर्घदर्शी तद्यावोऽपि (?) प्रज्ञैव । 'प्रज्ञा कालत्रयार्थगा' इति वचनात । तथा वस्त्ववस्तुनोः कृत्याकृत्ययोः स्वपरयोश्च ह विशेषमन्तरं जानातीति विशेषज्ञः । अविशेषज्ञो हि पुरुष: पशो तिरिच्यते । अथवा विशेषं आत्मन एव गुणदोषाधिरोहणलक्षणं जानातीति विशेषज्ञः । यदाह 'प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः। किन्नु मे पशुभिस्तुल्यं किन्तु सत्पुरुषैरिति ।' [ ] स च प्रज्ञेषः । ततः सूक्तं प्राज्ञ इति । तथा चोक्तम् 'इदं फलमियं क्रिया करणमेतदेषः क्रमो, व्ययोऽयमनुषङ्गजं फलमिदं दशैषा मम । अयं सुहृदयं द्विषत्प्रयतदेशकालाविमा विति प्रतिवितर्कयन्प्रयतते बुधो नेतरः ॥ [ ] कृतज्ञः-कृतं परोपकृतं जानाति न निद्भुते । एवं हि तस्य कुशललाभाय उपकारकारिणो बहुमन्यते । ' कृतघ्नस्य निष्कृतिरेव नास्ति । यदाह 'ब्रह्मघ्ने च सुरापे च चौरे भग्नव्रते तथा । निष्कृतिविहिता राजन् कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः॥[ ] कृतज्ञाश्चात्रेदानीमतिदुर्लभाः । यदाह इस प्रकारके ज्ञानको ही प्रज्ञा कहते हैं। तथा दीर्घदर्शी होना चाहिए जो दीर्घकालमें होनेवाले अर्थ अनर्थका विचार करता है उसे दीर्घदर्शी कहते हैं। यह भी प्रज्ञा ही है क्योंकि प्रज्ञाको त्रिकालवर्ती अर्थगत कहा है। तथा जो वस्तु अवस्तुके, कृत्य अकृत्यके अपने परायेके विशेष अन्तरको जानता है उसे विशेषज्ञ कहते हैं। जो पुरुष विशेषज्ञ नहीं है वह पशुसे भिन्न नहीं है। अथवा जो आत्माके ही गुण दोषोंपर आरोहण करने रूप विशेषको जानता है वह विशेषज्ञ है। कहा है-'मनुष्यको प्रतिदिन अपने चरितका निरीक्षण करना चाहिए कि वह पशुओंके तुल्य है या सत्पुरुषोंके तुल्य है।' यह भी प्रज्ञा ही है अतः प्रज्ञा कहना उचित है । कहा है-यह फल है, यह क्रिया है, यह करण है, यह क्रम है, यह आनुषंगिक हानि लाभ है, मेरी यह दशा है, अमुक मेरा मित्र और अमुक मेरा शत्रु है, ये उचित देश काल है, ऐसा विचार बुद्धिमान ही करता है दूसरा नहीं करता।' तथा गृहस्थको कृतज्ञ होना चाहिए-दूसरेके द्वारा किये गये उपकारको भूलना या छिपाना नहीं चाहिए । इससे यह लाभ है कि उपकार करने वाले उसका बहुमान करते हैं । कृतघ्नका तो उद्धार ही सम्भव नहीं है। कहा है-ब्रह्महत्या करनेवाले, मद्यपायी, चोर और व्रतभंग करनेवालेका तो उद्धार सम्भव है किन्तु कृतघ्नका उद्धार सम्भव नहीं है। आजके समयमें कृतज्ञ पुरुष दुर्लभ १. लाभो यदुपकारिणो-योग, टी.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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