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________________ धर्मामृत ( सागार) "विधिनियमितम्' इत्यनेन च काले हितं मितं सात्म्यं चाद्यादित्युक्तं स्यात् । मितं-मात्रापरिच्छिन्नम् । यदाह 'मात्राशि सर्वकालं स्यान्मात्रा ह्यग्नेः प्रवर्तिका । मात्रां द्रव्याण्यपेक्षन्ते गुरूण्यपि लघून्यपि । गुरूणामधंसौहित्यं लघूनां नातितृप्तता। मात्राप्रमाणं निर्दिष्टं सुखं तावद्धि जीयंति ॥' [ अष्टाङ्गह. ८।२ ] सात्म्यलक्षणं यथा 'पानाहारादयो यस्य विरुद्धा प्रकृतेरपि । सुखित्वायैव कल्पन्ते तत्सात्म्यमिति गीयते ॥' अविधिभोजनः [-ने] घनव्याधिरसमाधिमरणं च सुघटमेव । यदाह 'अयुक्तियुक्तमन्नं हि व्याधये मरणाय वा।' विहारविधिर्यथा-सातपत्रपद (?) अविधिविहारिणो ह्यनर्थपरम्पराऽवश्यं भाविन्येव । आर्यसमितिः-आर्येषु सदाचरणकप्राणेषु न तु कितव-धूर्त-विट-भट्ट-भण्डनटादिषु समितिः सङ्गति१५ यस्य । अनार्यसङ्गतौ हि सदपि शीलं विशियेत ( विशोर्यंत ) । यदाह 'यदि सत्सङ्गनिरतो भविष्यसि भविष्यसि । अर्थ सज्ज्ञानगोष्ठीषु पतिष्यसि पतिष्यसि ।।' अपि च'मिथ्यादृशां च पथश्ख्यातानां (?) मायाविनां व्यसनिनां च खलात्मनां च । सङ्ग विमुञ्चत बुधाः कुरुतोत्तमानां, गन्तुं मतिर्यदि समुन्नतमार्ग एव ॥' [ कहा है-सर्वदा उचित मात्रामें भोजन करना चाहिए। भोजनकी उचित मात्रा अग्निको उद्दीप्त करती है। भोज्य हलका हो या भारी हो, मात्राका ध्यान रखना आवश्यक है। जितना सुख पूर्वक पच सके वही मात्रा है। प्रकृति विरुद्ध भी खान-पान यदि सुखकारक हो तो उसे सात्म्य कहते हैं। अविधि पूर्वक भोजन आधि व्याधि और मरण कारक होता है। कहा है-अयुक्त भोजन व्याधि और मरणके लिए होता है। इसी तरह जो अविधि पूर्वक विहार करता है उसका अनिष्ट अवश्यंभावी होता है। गृहस्थको सदाचारी पुरुषोंकी संगति करनी चाहिए, धूर्त और बदमाशोंकी नहीं। उनकी संगतिसे शील नष्ट होता है। कहा है-यदि उन्नतिके मार्गमें जाना चाहते हो तो मिथ्यादृष्टियों, कुपथगामियों, मायावियों, व्यसनियों और दुर्जनोंकी संगति छोड़कर उत्तम पुरुषोंकी संगति करो। गृहस्थको प्राज्ञ होना चाहिए अर्थात् उसे अपने और दूसरोंके द्रव्य, क्षेत्र काल भावकृत सामर्थ्य और असामर्थ्यका ज्ञान होना चाहिए। उसके ज्ञानपर ही सब कार्य सफल होते हैं, अन्यथा तो विफल होते हैं। कहा है-यदि शक्तिके अनुसार व्यायाम किया जाये तो प्राणियोंके अंगोंकी वृद्धि होती है और बलको विचारे बिना कार्य करनेसे विनाश होता है।' १. अथासज्जन-यो. टी. ११४७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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