SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४३ ३ सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय ) अथ स्तेयानुभावं द्वाभ्यामाह आस्तां स्तेयमभिध्यापि विध्याप्याग्निरिव त्वया। हरन् परस्वं तवसून् जिहीर्षन् स्वं हिनस्ति हि ॥८६॥ अभिध्या-परस्वविषये स्पृहा ॥८६॥ रात्रौ मुषित्वा कौशाम्बी दिवा पञ्चतपश्चरन् । शिक्यस्थस्तापसोऽधोऽगात तलारकृतदर्मतिः॥८७॥ पञ्चतपश्चरन्-पञ्चाग्निसाधनं कुर्वन् । शिक्यस्थः-परभूमि न स्पृशामीति लम्बमाने शिक्ये तिष्ठन् ॥८७॥ उन्हें स्मरण आया कि उनके पति 'अज' शब्दका वही अर्थ करते थे जो नारद कहता है। अतः नारदका कहना ठीक है पर्वतका कथन गलत है। किन्तु अब तो दोनोंने वसुको निर्णायक माना था। इसलिए गुरुपत्नी अपने पुत्रके मोहवश वसुके पास पहुँची और उससे बोलीतुम्हें स्मरण है कि जब तुम गुरुके पास पढ़ते थे, तुम्हें मैंने गुरुके कोपसे बचाया था और तुमने मुझे वचन दिया था ? वसुने स्वीकार किया तो बोली-कल तुम्हारे सम्मुख नारद और पर्वतका विवाद आयेगा । तुम्हें पर्वतका पक्ष करना होगा। वसुने गुरुपत्नीके आग्रहसे स्वीकार किया। दूसरे दिन विवाद उपस्थित होनेपर वचनबद्ध वसुने पर्वतका पक्ष ग्रहण किया और नरकका पात्र बना । अतः शास्त्रोंके अर्थमें विपरीतता करना भी असत्यभाषण ही है। इसलिए शास्त्रोंका अर्थ करते समय भी असत्यभाषणसे बचना चाहिए ।।८५॥ दो श्लोकोंसे चोरीका प्रभाव कहते हैं हे समाधिमरणके इच्छुक ! चोरीकी तो बात ही क्या, उसकी इच्छाको भी तुम्हें आगकी तरह तत्काल शान्त कर देना चाहिए। अर्थात् जैसे आग सन्तापका कारण है वैसे ही परधनकी इच्छा भी सन्तापका कारण है। क्योंकि परद्रव्यको हरनेवाला उसके प्राणोंको हरना चाहता है अतः वह अपना ही घात करता है ।।८।। _ विशेषार्थ-उक्त कथनका अभिप्राय यह है कि जो पराये धनको चुराता है उसमें दूसरेके प्राणोंका घात करनेकी इच्छा अवश्य होती है क्योंकि धन प्राणके समान प्रिय होता है। और परके प्राणोंका घात करने की इच्छा अपने आत्माकी हिंसा है क्योंकि परमार्थसे तो उसे ही हिंसा कहते हैं। भावहिंसाके होनेपर ही द्रव्यहिंसा दुरन्त संसार दुःखरूप अपना फल देती है ।।८।। रात्रिमें कौशाम्बी नगरी में चोरी करके दिनमें छींके पर बैठकर पंचाग्नि तप करनेवाला तापस कोतवालके द्वारा रौद्रध्यान पूर्वक मारा जाकर नरकमें गया ॥८॥ विशेषार्थ-कौशाम्बी नगरीमें साधुके वेशमें एक चोर वृक्षकी डालमें छीका डालकर उसपर बैठकर तपस्या किया करता था। पूछने पर वह कहता था कि मैं परायी वस्तुका स्पर्श नहीं करता इसीसे पृथ्वीसे ऊपर छीके पर बैठता हूँ। किन्तु रात होते ही वह नगर चोरी करता था। जब चोरियोंकी बहुत शिकायतें राजा तक पहुँची और कोतवाल पर डाँट पड़ी । तब एक अनुभवी ब्राह्मणने कहा कि इस नगर में जो सबसे निर्लिप्त अपनेको दिखाता है वही चोर हो सकता है। और इस तरह वह तापसवेशी चोर पकड़ा गया तथा मार डाला गया ॥८७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy