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________________ ३४२ धर्मामृत ( सागार) यमपालो हदेहिसन्नेकाहं पूजितोऽप्सुरैः। धर्मस्तत्रैव मेण्ढघ्नः शिशुमारस्तु भक्षितः ॥४३॥ यमपाल:-वाराणस्यां मातङ्गः। ह्रदे-शिशुमारहदे । अहिंसन्नेकाहं-चतुर्दशीदिने हिंसामकुर्वन् । अप्सरैः-जलदेवताभिः । धर्म:-श्रेष्ठिपुत्रः । मेण्दघ्नः-राजमेण्ढ़कं हतवान् ।।८३।। अथासत्यकृतापायं द्वाभ्यामाह - मा गां कामदुधां मिथ्यावादव्याघ्रोन्मुखी कृथाः । अल्पोऽपि हि मृषावादः श्वभ्रदुःखाय कल्पते ॥८४॥ गां-वाचं धेनुं च ॥८४॥ अजैर्यष्टव्यमित्यत्र धान्यस्त्रैवार्षिकैरिति । व्याख्यां छागैरिति परावांगानरकं वसुः ॥८॥ अजैरित्यादि-न जायन्ते इत्यजा वर्षत्रयवृत्तयो व्रीहयस्तैर्यष्टव्यं शान्तिकपोष्टिकार्था क्रिया कार्येति क्षीरकदम्बाचार्यव्याख्यानं परावत्य । अजैः-अजात्मजैर्यष्टव्यं हव्यकव्यार्थो विधिविधातव्यः इत्यस्यथा कृत्वा ॥८५॥ १२ कार्यति होनेपर दुःखसे अभिभूत नहीं होता। जो समस्त अहिंसाका स्वामी होता है वह तो समस्त दुःखोंसे दूर रहता है ।।२।। केवल एक चतुर्दशीके दिन हिंसा न करनेवाला यमपाल चाण्डालके तालाबमें जलदेवतासे पूजित हुआ। किन्तु राजाके मेढेको मारनेवाला राजपुत्र धर्म उसी तालाबमें मगरमच्छोंके द्वारा खाया गया ।।८३॥ विशेषार्थ-वाराणसी नगरीके राजाने अष्टाह्निकामें जीवहत्यापर प्रतिबन्ध लगा दिया था। फिर भी राजपुत्र धर्मने राजाके मेढेका वध किया। राजाने उसे मृत्युदण्ड दिया और यमपाल चाण्डालको बुलवाया। अपराधियोंको प्राणदण्ड देनेका कार्य वही करता था। किन्तु उसने मुनिराजसे व्रत लिया था कि मैं चतुर्दशीके दिन किसीका प्राणघात नहीं करूँगा। और उस दिन चतुर्दशी थी। यमपालने राजाज्ञा पालन करना स्वीकार नहीं किया तो उसे धर्मके साथ मगरमच्छोंसे भरे तालाबमें फेंक दिया। यमपालको तो जलदेवताने बचा लिया और पूजित किया किन्तु धर्मको मगरमच्छ खा गये यह अहिंसा और हिंसाका माहात्म्य है। आचार्य समन्तभद्रने यमपालको अहिंसाणुव्रतके पालन करनेवालोंमें प्रसिद्ध कहा है ।।८३।। दो श्लोकोंसे असत्य भाषणके दोष कहते हैं हे क्षपक ! कामधेनु स्वरूप वाणीको असत्य भाषणरूपी व्याघ्रके सामने मत ले जाओ। थोड़ा-सा भी झूठ बोलना नरकका दुःख देता है ।।८।। 'अजैर्यष्टव्यम्' इस वेद वाक्यमें 'अज' की तीन वर्ष पुराना धान्य इस व्याख्याको बकरेमें बदल देनेसे राजा वसु नरकमें गया ॥८५॥ विशेषार्थ-क्षीरकदम्बक उपाध्यायके पास राजपुत्र वसु, उपाध्यायका पुत्र पर्वत तथा एक नारद नामक छात्र पढ़ते थे। एक बार गुरुका मरण सुनकर नारद मिलने आया तो पर्वत शिष्योंको पढ़ा रहा था। उसने 'अजैर्यष्टव्यम्'का अर्थ बकरेसे हवन करना चाहिए-किया तो नारदने टोका कि गुरुजीने 'अज' शब्दका अर्थ-जो बोनेपर उग न सके ऐसे तीन वर्ष पुराने जौ पढ़ाया था। इसपर दोनों में विवाद हुआ तो अपने तीसरे साथी वसुको जो अब राजा था निर्णायक माना। गुरुपत्नी भी इस विवादको सुन रही थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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